तिजोरियों में गेहूं नहीं उगते
तिजोरियों में गेहूं नहीं उगते
आसमान से धान नहीं टपकते
टपकाने पड़ते हैं लहू धरा में
चीरने पड़ते हैं छाती धरा के
बोन होते हैं बीज के संग खाब
कमोने होते दूब संग चिंता के घाव
सीचने होते है नयनों के आब
तब जा कर कहीं मिलता है
मुट्ठी भर बीज के बदले
दोना भर स्वर्ण धन सा अनाज
और तुम कहते हो
किसानों को किस बात का है अवसाद
~ सिद्धार्थ