‘ताश का पत्ता”
‘ताश का पत्ता”
मानव, ‘ताश’ के जैसा है;
हर चरित्र, ‘ताश-पत्ता’ है;
कोई , नहले पर दहला है;
तो कोई , सत्ते पे सत्ता है;
कोई इक्का बन , बैठा है;
कोई ‘बादशाह’ बन, घूमे;
कोई बेगम संग ही , झूमे;
गुलाम ही यहां, रक्षा करे;
बाकी सब आपस में लड़े;
नहीं कोई,किसी को भाये;
सब बस,रंग जमाना चाहे;
रंग दिखाये,सब झूमकर;
दाएं-बाएं, हमेशा घूमकर;
कोई बनता,चिरईंबाज है;
कोई ईंटों का, सरताज है;
बाकी, पान हेतु बेताब है;
सिर्फ बावन का, खेला है;
जोकर ही तो , झमेला है;
जीतो कुछ भी, ईमान से;
या हार जाओ बेईमान से,
दोषी तो है, सामने वाला;
क्या करेगा , ऊपर वाला;
जीते तो कितना घमंड है,
हारे तब , प्रलाप प्रचंड है;
बिना बताए, निखर जाए;
पल में ही वो बिखर जाए;
सबकी तो अपनी शक्ति है;
कितना भी , ज्यादा खेलो;
नहीं कहीं,कोई विरक्ति है।
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स्वरचित सह मौलिक;
……✍️ पंकज कर्ण
….. ……कटिहार।।