तालाश-ए-जिंदगी…..
चाहत कब थी दिल को, कोई हमराज भी हो मेरा।
ढ़लते हुए से शाम को, मिले एक नया सवेरा ।।
आदत सी हो गई थी , टटोलने की खुद को ।
न कोई रौशनी थी, न जुगनुओं का बसेरा।।
एक दिन हुआ कुछ ऐसा ……
टूटा जो एक सितारा ।
पूरी हुई दुआ …..
मिला एक नया सहारा ।।
बन के खुदा की रहमत
नूर का एक साया ।
जो चीरता अंधेरा
मेरी जिन्दगी मे आया ।।
रौशन हुआ शमाँ….
खुद को नज़र मैं आया ।।
देखा जो खुद को खुद से
इस कदर मै घबराया ।।
वो “कैश” खुद ही मैं था
जिसे उम्र भर…., ढूंढता नज़र मैं आया।।
:- आकिब ज़मील “कैश”