ताड़का जैसी प्रवृति और श्याम चाहती हैं,सूपर्णखा सी स्त्रियां
ताड़का जैसी प्रवृति और श्याम चाहती हैं,सूपर्णखा सी स्त्रियां भी राम चाहती हैं।।
शकुनी जैसी नियति और रावण सा अभिमान चाहिए,दुशासन जैसे पुरुषों को भी सम्मान चाहिए।।
कलियुग की होड़ में धरती गमगीन है,हर एक शख्स को अब सारा जहान चाहिए।।
नीति का पाठ जो कभी पढ़ाया नहीं,उन्हें भी आज विदुर सा ज्ञान चाहिए।।
द्रोणाचार्य के अधीन खुद को पाते हैं,गुरु दक्षिणा में बस आर्यवीर अभिमान चाहिए।।
कंस की चाल में फंसे ये जो जीवन है,कृष्ण की बांसुरी में बस आराम चाहिए।।
दुशासन की दृष्टि, द्रौपदी का चीरहरण,और अंत में उन्हें अर्जुन का बाण चाहिए।।
स्वयं को रावण का अंश मानते हैं ये लोग,राम के हाथों उनका भी अंतिम मान चाहिए।।
धरती का ये बोध, आकाश की उड़ान,इन्हें पंख तोड़ कर भी ऊंची उड़ान चाहिए।।
वक्त की नज़ाकत को समझ न पाए जो,उन्हें हर बार वही पुराने बयान चाहिए।।
नैतिकता की बातें, फिर छल-बल की रीत,और समाज से वे अब भी पहचान चाहिए।।
मोह-माया के जाल में फंसे ये बंधन,अधर्म के साथ भी अब उन्हें इंसाफ चाहिए।।
शूर्पणखा की नज़र, और कैकेयी की चाह,उन्हें राम से फिर से हर मान चाहिए।।
इस दोहरे चरित्र में उलझा ये समाज,हर छल-प्रपंच को अब नया प्रावधान चाहिए।।
विरासत में जो मिला था धर्म का पाठ,उसे भुला कर अब बस आराम चाहिए।।
शकुनी की नीति, और दुर्योधन की राह,इन भटकते मनुष्यों को सबकुछ आसान चाहिए।।
सतयुग से त्रेता, फिर द्वापर और कलियुग,हर युग में इन्हें वही पुराना आयाम चाहिए।।
अब कौन समझाए इन्हें जीवन का सार,इन भ्रमित आत्माओं को फिर से भगवान चाहिए।।
ताड़का जैसी प्रवृति और श्याम चाहती हैं,सूपर्णखा सी स्त्रियां भी राम चाहती हैं।।