तहजीब निकला
विसवास के अंधेरों से मजबूर होके तहजीब निकला।
हम सिर सहलाते रहे मनु का ,दोश्त मजीद निकला।।
सीख कहाँ मानी शहद समझ के पीते रहे नासमझ
नशा उतरा तव समझ ए वो कथन तमीज़ निकला।।
उनकी झूठी मोहब्बत के गरूर में सब कुछ भूल गए
छल लिया ख़ुदी को ,देखा तो अपना संजीद निकला।।
अपनी खुशियों की शरीखी में गुल गुला खा लिया
जीभ पे स्वाद चखा तो,अपना साग लजीज निकला।।
बांहु में हँस के भर लिया ,बुबा दी खेत में नागफनी
नसीब समझ लो क़ि फूला तो वो खुर्शीद निकला।।
घूमने निकले की यह जन्नत की नूर है सारी दुनिया
जिसको दोज़ख समझे वो पहली दहलीज़ निकला।।
साहब अपना ही दे सकता है ,सही सा मशविरा हमें
रिश्तों की दरार में यह कलेजा मानों पसीज निकला।।