तस्वीर – 3
सुन्दर‚मनहर‚सुखकर‚प्यारा।
जब प्रभात ने पंख पसारा।
इस बतास में मन्द गँध का।
द्वार खुला जब पड़े बन्ध का।
हरी दूब पर कोमल शबनम।
लगा चमकने जब है चमचम।
उषाकाल के प्रथम चरण में।
चमका मुखड़ा सूर्य किरण मैं।
शान्त स्वच्छ निर्मल था कितना।
होता जलधि का नील जल जितना।
भोलापन ज्यों टपक रहा था।
मन दर्पण सा चमक रहा था।
मृदुता तनकर तन पर सिमटी।
ज्यों नव कोंपल तरू से लिपटी।
पंखुरी सा कोमल और निश्छल।
मानस शिशु का अविचल‚अविकल।
चित्रकार ने खींचा जो छवि।
लगता था शैशव का हो रवि।
दिन बीते क्षण‚रातें गुजरी।
ध्वस्त हुआ बहु‚बहु कुछ संवरी।
सब नवीन अब हुए पुरातन।
बदल गया सृष्टि का तन‚मन।
विजय यात्रा में नर गुरूजन।
बहुत दूर तक बढ़ रहे क्षण–क्षण।
तभी अचानक एक दिवस को।
दृीष्ट उठ गयी अति परवश हो।
रँग‚रेख से भरी गई जब।
औ’ आकृति भी उभर गई जब।
कपट और छल टपक रहा था।
रँग गुनाह के चिपक रहा था।
साँस–साँस में महक रहा था।
गँध खूनी ही गमक रहा था।
धूत्र्त और धोखे की ज्वाला।
मन था उसका कितना काला।
आँखों में विध्वंस भरा था।
सिर्फ विनाश का अंश भरा था।
असुर वृति हर क्रिया–कलाप में।
काँप क्रोध जो रहा आप में।
रोम–रोम में जहर भरा था।
मन के व्योम में आग भरा था।
गँधा रहा था मानस उसका।
कुटिल‚काम‚मदमय हो जिसका।
देख गौर से चित्रकार जब।
चौंक गया था कुछ विचार जब।
मीन–मेष कर उसने देखा।
रँग–रँग को रेखा–रेखा।
भरे धुँध से‚धुँआ धूल से।
उभर उठा छवि दूर कूल से।
रेॐ यह तो शिशु का तन–मन है।
चन्दन चर्चित पूर्ण बदन है।
यह आकृति इतनी छलनामय?
देव‚हुआ क्या?किासका पराजय।
कौन हारकर मन मारे है?
तू या काल खेल हारे है?
नियतिॐया तू ही प्रपंची है?
सिर्फ कलाकार ही मंची है।
———————————-