तसल्ली
हर आरज़ू का पर यूँ , हमने कतर दिया,
की ज़िन्दगी में हमने, ऐसा सफर लीया।
न ख्वाहिशो को कोई, वाजिब सा घर दिया,
बस राह अजनबी सा, इक ऐसा धर लिया।
फरमाहिशें भी थी ना, न कोई शेष शौख थे,
पर थी तसल्ली इतनी, इज़्ज़त पे सर दिया।
न सोचा मेरे खाबिन्द, जिएंगे कैसे रो रो के,
हँस के जान अपना, मुल्क को नज़र किया।
मैं आंखों का तारा था, किसी का राजदुलारा,
मगर हाय रे किस्मत, न माँ को खबर किया ।
मिटा के मेरा नाम क्युँ, खुदाया तेरा राहबर,
न करि कद्र शहादत की, क्यो बेकदर किया।
सजा ताज खुद के सर, नसीबा मेरा जला कर,
वो मेरे ख्वाब की तामीर, दुआ हर बेअसर किया।
अरे मुझ फौजी की तो, समझ तकदीर रूठी है,
की मेरे ख्वाब के पन्ने, कोई ज़ालिम क़तर दिया।
चलो कोई नही लेकिन, मुझे इसकी तसल्ली है,
हमने सह लिया हर वार, कवायद इस कदर किया।
सलामत थे सलामत है, सलामत हिन्द रहे हरदम,
यही चाहत लिए “चिद्रूप”, सरहदों पे बसर किया।
©® पांडेय चिदानंद “चिद्रूप”
(सर्वाधिकार सुरक्षित २७/०९/२०१८ )