सत्य चला….
कुछ जगा – जगा सा है,
कुछ थका – थका सा है,
सब धुआं – धुआं सा है,
बादलों में छिपे सूरज की तरह,
सत्य आज ढका – ढका सा है।
ना मैं देवालय में,
ना मैं न्यायालय में,
ना मैं मदिरालय में,
ना मैं योगी के वचनों में,
ना मैं दानी के दान में,
ना मैं दादा – दादी की कहानियों में,
ना मैं व्यापारी के व्यापार में।
बंट गया हूँ कई हिस्सों में,
दब गया हूँ तथ्यों में,
सिमट गया मैं किताबों में,
टूट गया मैं टुकड़ों में।
यह तेरा सत्य,
यह मेरा सत्य,
यह इसका सत्य,
यह उसका सत्य।
उंगलियां उठ रही हैं कि सत्य यहाँ है,
पर सत्य तो यह है कि
सत्य चला अपनी तलाश में,
मैं चला अपनी ही तलाश में।