तर्पण १
तर्पण
क्रम-१.
तृप्ति के लिए तर्पण किया जाता है. हमारे यहाँ मान्यता है कि मरनोपरान्त हमारे पितर स्वर्ग जाते हैं. स्वर्ग में वे सशरीर नहीं जाते, उनकी आत्मा जाती है. तो स्वर्गस्थ आत्माओं की तृप्ति किसी पदार्थ से, खाने-पहनने आदि की वस्तुओं से कैसे संभव है ? भौतिक उपकरणों की आवश्यकता तो स्थूल शरीर को न होती है. जैसे मान लिया किसी का बेटा कहीं विदेश में पढ़ाई कर रहा है और उसकी जिम्मेवारी आपके ऊपर है. तो उसकी व्यवस्था आपके द्वारा की गयी भौतिक उपकरणों की आवश्यकता की पूर्ति पश्चात् होगी.
मरने के बाद स्थूल शरीर समाप्त हो जाता है. तो मान्यता यह है कि स्थूल शरीर तो समाप्त हो जाता है, मगर सूक्ष्म शरीर रह जाता है. जिस सूक्ष्म शरीर को भूख-प्यास, सर्दी-गर्मी आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती, उसकी तृप्ति का विषय कोई, खाद्य पदार्थ या हाड़-माँस वाले शरीर के लिए उपयुक्त उपकरण नहीं हो सकते. मान्यता यह बनी कि सूक्ष्म शरीर में विचारणा, चेतना और भावना की प्रधानता रहती है. इसलिए उसमें उत्कृष्ट भावनाओं से बना अन्त:करण या वातावरण ही शान्तिदायक होता है.
इस प्रकट संसार में स्थूल शरीर वाले को जिस प्रकार इन्द्रिय भोग, वासना, तृष्णा एवं अहंकार की पूर्ति में सुख मिलता है, उसी प्रकार पितरों का सूक्ष्म शरीर शुभ कर्मों से उत्पन्न सुगन्ध का रसास्वादन करते हुए तृप्ति का अनुभव करता है. उसकी प्रसन्नता तथा आकांक्षा का केन्द्र विन्दु श्रद्धा है. श्रद्धा भरे वातावरण के सानिध्य में पितर अपनी अशान्ति खोकर आनन्द का अनुभव करते हैं, श्रद्धा ही इनकी भूख है, इसी से उन्हें तृप्ति होती है. इसलिए पितरों की प्रसन्नता के लिए श्राद्ध एवं तर्पण किये जाते हैं.
तर्पण में प्रधानतया जल का ही प्रयोग किया जाता है. उसे थोड़ा सुगन्धित एवं परिपुष्ट बनाने के लिए जौ, तिल, चावल, दूध, फूल जैसी दो-चार मांगलिक वस्तुएँ डाली जाती हैं. कुशाओं के सहारे चावल, जौ और तिल की छोटी-सी अँजली मंत्रोच्चारपूर्वक डालने मात्र से पितर तृप्त हो जाते हैं. किंतु इस क्रिया के साथ आवश्यक श्रद्धा, कृतज्ञता, सद्भावना, प्रेम, शुभकामना का समन्वय अवश्य होना चाहिए. यदि श्रद्धाञ्जलि इन भावनाओं के साथ की गयी है, तो तर्पण का उद्देश्य पुरा हो जाएगा, पितरों को आवश्यक तृप्ति मिलेगी. किन्तु यदि इस प्रकार की कोई श्रद्धा भावना तर्पण करने वाले के मन में नहीं होती और केवल लकीर पीटने के लिए मात्र पानी इधर-उधर फैलाया जाता है, तो इतने भर से कोई विशेष प्रयोजन पूर्ण न होगा. इसलिए इन पितृ-कर्मों के करने वाले दिवंगत आत्माओं के उपकारों का स्मरण करें, उनके सद्गुणों सत्कर्मों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करें. कृतज्ञता तथा सम्मान की भावना उनके प्रति रखें और यह अनुभव करें कि यह जलाँजली जैसे अकिंचन उपकरणों के साथ अपनी श्रद्धा की अभिव्यक्ति करते हुए स्वर्गीय आत्माओं के चरणों पर अपनी सद्भावना के पुष्प चढ़ा रहा हूँ. इस प्रकार की भावनाएँ जितनी ही प्रबल होंगी, पितरों को उतनी ही अधिक तृप्ति मिलेगी.