तर्पण —( डी. के. निवातिया )
करने आया था तर्पण अपने मात-पिता का
अनायास ही मुझसे टकरा गया
मैंने भी पूछ लिया, कैसे हो मित्र !
रुआंसा होकर बोला, अच्छा हूँ
मैंने फिर पूछ लिया, ह्रदय में इतना रुदन किस लिए ?
बोला याद आती है ,माता पिता की
उन्ही की याद में, उनकी आत्मा शांति के लिए
कुछ दान दक्षिणा कर तर्पण विधि पूर्ण करने आया हूँ
!
मुझे याद आने लगा उसका पुराना मंजर
जा चला गया था छोड़कर बूढ़े माता पिता को
बीस बरस कैसे बिताये दम्पत्ति ने
बिना किसी का साहार लिये,
जानता है सारा मोहल्ला गली और गाँव
जब भी किसी का बेटा आता था
मुस्कुरा लेते थे उसे देखकर अपने बेटे की आस में
शायद आ जाये उनका भी बेटा, उनकी सुध लेने को
मन बड़ा मोहि होता है, झूठ को सच मानव देता है !
मगर अंत समय तक ना आया वो
लगा रहा जिंदगी की भाग दौड़ में
दुनिया के झूठे दिखावे की हौद में
अंतत: प्राण त्याग दिये थे दोनों ने
मुखग्नि को भी सेज सम्बन्धी आये !
आज सम्प्पति का वारिस बनकर
तर्पण करने चला है सुपुत्र…!!
सोचता हूँ !
क्या यही है पुत्र मोह
या यही है तर्पण
इस दुनिया में दिखावे के रूढ़िवादी ढकोसले
आज बन गये है ये हथियार लोभ लालच के
कितना भी शिक्षित हो जाए समाज
पर न मिट पायेगा परम्परानिष्ठ का अन्धकार !!
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डी. के निवातिया ______________!!!