तर्जनी आक्षेेप कर रही विभा पर
तर्जनी
तर्जनी आज
आक्षेप कर रही विभा पर
विभा…!
क्यों कि हो गई है कजली
अरे
कजली पर तो मैंने
सदा आक्षेप
लगता देखा है
परंतु विभा की यह
कैसी व्यथा है, जो
कजली में लुप्त हो रही है
और
अपने अंतर्द्वंद को
बढ़ा रही है
कजली हुई नहीं विभा
कर दी गई है
पूर्णमासी की रात को
अमावस्या निगल गई है
क्यों कि
इस काले समाज में
काल ही रंग प्राथमिकता पाएगा
उजाला होगा तो
दफना दिया जाएगा
इससे पूर्व कि दफनाये
जाए विभा…….
इन क्रूर काले हाथों से…
वह उठ श्मशान पहुंच गई है
जलाकर अपनी चिता
सो गई है……!!!
सूर्यकांत द्विवेदी