“तर्क हमेशा विद्यमान रहा है, किंतु तर्कसंगत रूप में नहीं”
तर्क हमेशा विद्यमान रहा है, किंतु तर्कसंगत रूप में नहीं
आइना बोल पड़ा “बहुत बदल गई हो तुम!”
ऐसा लगा मानो कोई अतीत के अंधकार में धकेलने की कोशिश कर रहा हो!
उत्तर निकला “बदलना तो था ही, क्योंकि मेरे पास तर्क था, युक्ति थी, न्यायशास्त्र की किताब थी”
“ऐसा क्या हुआ था कि तर्क बहस का पर्यायवाची बन गया?”आइने ने अति सरलता के साथ पूछा
सुनने के लिए विवेक चाहिए, अनुशासन चाहिए,बोलो सुनोगे?
एक हसीन चेहरे ने उस ओर से जवाब दिया “तार्किक लोगों का पारस्परिक संपर्क समीय होता है,मैं तो तुम्हारा ही अंश हूं”
एक मौन सी हंसी के साथ मैंने कहा “बात उस बच्ची की है जिसने तर्क से जंग जितनी चाही थी,उससे जिसे वो गुरु मानती थी”
महज़ १२ साल की लड़की थी वो
जो चाहती थी कुछ बदलना, एक ऐसा नियम , जिसका खंडन उसकी जिंदगी बना सकता था!
तर्क था, परीक्षा में पेन के जगह पेंसिल से लिखना चाहती थी वो !
पर गुरु को कलह का ज़रिया लगी थी वो
आखिर पेंसिल से लिखकर अक्षर सुधारना चाहती थी वो
पर शिक्षक को विद्यालय के नियमों का खण्डन करने वाली एक “अहम” चरित्र लगी थी वो!
तर्क इतना सा था कि उम्र कम है, पेंसिल अक्षर सुधार देगा,पेन बिगाड़ देगा!
उसका तर्क ,युक्ति की उपस्थापना नहीं कर पाई, और वो आंखो का कांटा बन गई!
चंद साल बीत गए, एक दिन एक १२ साल का बालक अचानक उस लड़की के पास आकर खड़ा हो गया!
वो लड़की जो अब एक “अक्षर लेखन प्रतियोगिता” की निर्णायक मंडली का हिस्सा थी!
बालक को देखकर वो आश्चर्यचकित होकर पूछी “बेटा कुछ कहना है तुम्हें?”
उसने अत्यंत ही निरीहता के साथ कहा “मैडम मैं आज इस प्रतियोगिता में अव्वल आया हूं,मैं आपका शुक्रगुजार हूं”!
मैडम को बड़ी हैरानी हुई, वो कुछ कहती की बालक ने एक लिफाफा थमाते हुए कहा ” तार्किक को याद रखना चाहिए की विषय में मतांतर हो सकता है, परंतु मनांतर नहीं”!
उसने बच्चे को गले से लगा लिया और अश्रु को थाम कर पूछा “क्या तुम कार्तिक सर के..”
“जी मैं उनका पोता हूं, उन्होंने मुझसे कहा था, जब आपसे मिलूं तो यह लिफ़ाफा एक पेंसिल के साथ भेट में दूं”
तर्कों का समाधान हो रहा था
रिश्तों का उत्थान हो रहा था
तर्क वास्तविक जीत हासिल कर गया
कुंठित कलपिथार्थ हार गया
वक्त बीत गया, घाव भर गया
शिक्षक की नफरत प्यार में बदल गई
पर जिंदगी समय के आगे हार गई
इंसान नहीं ,पर उसका लिफ़ाफा बोल रहा था आज!
हिम्मत करके लिफ़ाफा खोला तो लिखा था “तर्क हमेशा विद्यमान रहा है, किंतु तर्कसंगत रूप में नहीं,तुम जीत गई, मैं हार गया”
सुनो आइना ,वो १२ साल की लड़की, वो जज वाली मैडम और कोई नहीं अपितु “मैं” ही थी!
हारी मैं कभी नहीं थी, बस हारा हुआ महसूस कर रही थी!
विस्मय मुस्कान के साथ आईने ने बस इतना ही कहा : ” तर्क मस्तिष्क से चलता है, जुबान से नहीं, मुबारक हो, तुम सफल हो!”
© अनन्या पहाड़ी