*तरह-तरह की ठगी (हास्य व्यंग्य)*
तरह-तरह की ठगी (हास्य व्यंग्य)
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ठगों की कई किस्में होती हैं । एक बात सब में खास है कि उनकी बोली बहुत मीठी होती है। सामने वाला आदमी ठगों की मीठी बोली के चक्कर में ऐसा फॅंसता है कि उसकी सोचने-समझने की शक्ति ही समाप्त हो जाती है। जो ठग कहता है, ठगा जाने वाला व्यक्ति उसी का अनुसरण करता है।
अगर ठग ने मोबाइल पर यह संदेश भेज दिया कि आपकी दस लाख रुपए की लॉटरी निकली है और यह संदेश मीठी बोली के द्वारा आया है; तो अगला आदमी उस मीठी बोली के चक्कर में ही फॅंस जाएगा। मोबाइल पर जो ओटीपी आएगा, वह भी उसे बता देगा। दस लाख पाने के चक्कर में दस-पंद्रह हजार रुपए भी ठग को सौंप देगा। फिर बाद में जब ठगे जाने का पता चलता है, तब वह ठग की मीठी बोली को याद करता है और अपनी किस्मत को कोसता है। जब तक व्यक्ति ठग नहीं जाता, उसे अपने ठगे जाने का कोई एहसास नहीं होता। वास्तविकता तो यह है कि जिस समय व्यक्ति को ठगा जा रहा होता है; वह अपने आप को संसार का सबसे भाग्यशाली व्यक्ति समझता है।
आए दिन ठग-दुल्हनें अपने पूरे ठग-परिवार के साथ दूल्हे के घर में विवाह करके प्रविष्ट हो जाती हैं और फिर रातों-रात गहने और नगदी लूटकर चंपत हो जाती हैं । फिर न ठग-दुल्हनों का पता चलता है, न उनके परिवार का पता चलता है। अंत में दूल्हा अपने को ठगा हुआ महसूस करता है।
विभिन्न सरकारी नौकरियों में ठगी खूब चलती है। व्यक्ति अपने आप को प्रभावशाली बताता है। उसका हाव-भाव देखकर भी यही लगता है कि यह सज्जन व्यक्ति हैं और भारत के एक सौ महान व्यक्तित्वों में से एक हैं । ठगा जाने वाला व्यक्ति अगले की बातों में आकर लाखों रुपए एडवांस में दे देता है। कई बार ठग फिर नजर ही नहीं आते। कई बार चोरी और सीनाजोरी अंदाज में मूंछों पर ताव देकर पीड़ित व्यक्ति के सामने से गुजरते हैं और चुनौती भरे अंदाज में कहते हैं कि हमारा जो बिगाड़ सकते हो, बिगाड़ लो। पीड़ित व्यक्ति ठगा की मीठी बोली को याद करता है और उस मीठी बोली से ठगे जाने पर अफसोस के अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाता।
छोटे-मोटे लोगों की तो छोड़िए, बड़े-बड़े नेता लोग चुनाव में टिकट प्राप्त करने के चक्कर में ठग जाते हैं। अगला व्यक्ति पार्टी के बड़े-बड़े नेताओं के साथ अपने फोटो की एल्बम दिखाता है और विश्वास दिला देता है कि एमएलए, एमपी का टिकट दिलाना उसके बाएं हाथ का खेल है। लोभी व्यक्ति अपने दाएं हाथ से ठग के दोनों हाथों मैं धनु राशि काम करने के लिए देता है। ठग वह धनराशि लेकर उसके बाद चंपत हो जाता है।
सरकारी ठेकेदार आमतौर पर सरकारी विभागों को ठगते हैं। मान लीजिए सड़क पर एक सौ रुपए खर्च होने हैं वे पचास रुपए खर्च करते हैं तथा पचास रुपए की ठगी कर लेते हैं। विभाग उनके पीछे-पीछे दौड़ता है। कई बार विभाग के अफसर भी ठगी में शामिल हो जाते हैं। तब समझ में नहीं आता कि ठेकेदारों और अफसर की मिली-भगत से हुई ठगी के पीछे कैसे दौड़ा जाए ! कुछ लोग दौड़ते हैं, लेकिन फिर बाद में पता चलता है कि वह भी ठगों के साथ मिल गए। अब दौड़ने वाले तीन हो गए। फिर चौथे व्यक्ति को मामले की जॉंच सौंपनी पड़ती है।
कई बार दुकानदार ग्राहक को ठगता है। माल खराब देता है। पैसे पूरे ले लेता है। कई बार ठग दुकानों पर जाते ही इसलिए हैं कि वह ठगी कर सके। दुकानदार सामान दिखाता है और ठग हाथ की सफाई दिखा देते हैं। सीसीटीवी कैमरे भी भला कितनी ठगी रोक सकते हैं !
ठगों को पहचानना मुश्किल है। उनकी न कोई खास वेशभूषा होती है, न चलने-फिरने का कोई अलग अंदाज होता है। उनका चेहरा-मोहरा भी कुछ भी हो सकता है। कई बार वह बिल्कुल साधारण व्यक्ति जैसे जान पड़ते हैं। कई बार उनका व्यक्तित्व असाधारण रूप से सम्मोहन पैदा करता है। वह किसी भी कोण से ठग नहीं जाने जा सकते ! वह ठग ही क्या है जो पता चल जाए कि ठग है। जब तक व्यक्ति ठगा नहीं जाता, तब तक वह ठग को अपना परम मित्र और शुभचिंतक मानता है। संसार में उसके लिए तब तक ठग से बढ़कर और कोई नहीं होता।
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लेखक: रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451