तरही ग़ज़ल
लगाये पंख सपनों के, गगन की हूर होती है.
चले जब वक़्त का चाबुक, वही बेनूर होती है.
सजाये उमर भर जिनको, निहारा नाज़ से पाला,
नजर उसकी गजब हमसे, किस तरह दूर होती है.
फिजा बदली न हम बदले, दशा क्या गज़ब है बदली.
बला जो तब रही छिपकर, अभी मशहूर होती है .
नहीं चाहा भले जाना मगर, जाना पड़ा उसको,
लगाए लाख पहरे पर, नहीं मजबूर होती है.
@डॉ.रघुनाथ मिश्र ‘सहज’
अधिवाक्लता/साहित्यकार
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