तम्हें धर्म कहूँ…या जीने का सलीका…?
तम्हें धर्म कहूँ
या जीने का सलीका
या तुम्हें मौत कहूँ,
कुछ भी हो,
तुम्हें समझना मुश्किल नहीं
बस एक खाली दिल,और
एक खाली दिमाग चाहिए
बुद्ध के भिक्छा पात्र जैसा
तभी तो जाना जा सकता है तुम्हें
तुम सब कि पीठ पे हो,
जैसे कछुए कि पीठ पे पृथ्वी हो
और कहीं भी नहीं।
ढूंढने पे तुम मिलते नहीं,
मिल जाओ, तो दिखते नहीं
पर सब अपने-अपने तरीके से देखते है तुम्हें
किसी को मंदिरो के चौखटों में दीखते हो
किसी के लिए सोने चांदी में खनकते हो,
किसी को कुर्सी के पाए में
किसी को बंदूकों के साए में
पता नहीं,
कहाँ किस-किस रूप में मिलते हो।
मुझे तो कुरूप से दीखते हो,
खेतों के दरारों में, बेबस बीमारों में
माँ के आहों में, बच्चों के कराहों में
किसानों की लाशों में,
नोजवानों के टूटे आशाओं में
बेटियों के नुचे हुए मांसों में
कहाँ देखूं कि दिखो तुम
ख़ुशियों के मीनारों में,
हंसी के बयारों में
दिये के लश्कारों में
तुम मुझे कहीं नहीं दीखते
प्यार के फुहारो में।
…सिद्धार्थ …