तमन्ना थी ज़माने में कोई हमसा निकले
तमन्ना थी ज़माने में कोई हमसा निकले
कोइ फिर उससे मोहब्बत का सिलसिला निकले
गर है कोई लय कोई तर्ज़ ज़िंदगी में तो
अब दिल से मीठे – मीठे दर्द का नग़मा निकले
जिसे हुआ ये इल्म दर्द क्या है रोना क्या
इस बार शायद वो खुद पर ही हँसता निकले
घने जंगलों में लगी है आग अब ज़रूरी है
किसी पत्थर का सीना चीरकर झरना निकले
चाँद सी चमकती हैं आँखे कजरारी क्यूंकि
जलती लौ सि अंधेरे खाकर ही सुरमा निकले
कहने को भूल चुके हैं हम पुरानी बात
भड़क उठते हैं बुझते शोलों सि जब हवा निकले
मिलने से पहले खुश ही लगते थे लोग मुझे
ये क्या हर चेहरे में ‘सरु’ अक्स अपना निकले