तब गाँव हमें अपनाता है…
रचनाकार – रेखा कापसे
दिनाँक -16/07/2020
दिन – गुरुवार
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शहरी चकाचौंध से , जब मन घबरा जाता है।
चारदीवारी कमरे में, दम घूटने लग जाता है।।
अपनत्व की खोज में, मन हताश हो जाता है।
चलते चलते राह में, धैर्य कहीं खो जाता है।।
माँ का दुलार याद आता है, तब गाँव हमें अपनाता है….
भोर लालिमा में किसान, खेत-खलिहान सजाता है।
सौंधी सुवासित माटी से, कनक कण उपजाता है।।
अतुल्य गुणी प्रकृति की, रक्षा का बीड़ा उठाता है।
वृक्षारोपण से सकल धरा को, हरित चादर ओढ़ाता है।।
संसाधन व्यर्थ नहीं गंवाता है, तब गाँव हमें अपनाता है….
कच्चे खपरैल वाला घर, बारिश को बुलाता है।
चाँदनी से लबालब अंबर, स्वप्न नवीन दिखाता है।।
कच्ची गलियों का कीचड़, पग की शोभा बढ़ाता है।
मुंडेर पर बैठा कौआ, मेहमान आगमन बताता है।।
सत्य-नेक राह अपनाता है, तब गाँव हमें अपनाता है….
दीप दिवाली संग खुशियों के, पूरा गाँव मुस्कराता है।
हृदयतल वासित प्रेम, परस्पर विश्वास को बढ़ाता है।
पूरा गाँव स्नेहसूत्र में बंधकर, एक परिवार कहाता है।।
बड़े बुजुर्गो के सम्मान में माथा, आदर से झुक जाता है।।
हर बच्चे को संस्कार भाता है, तब गाँव हमें अपनाता है…
खग का कलरव मिश्री सा, कानों में घुल जाता है।
गोधूलि बेला में बछड़ा, अपनी माँ को देख रंभाता है।।
बैलगाडी पर बैठकर बच्चा, बैलो को हकाता है।
साँझ ढले चबूतरा पीपल का, दिनभर की कथा सुनाता है।
मुख पर भोलापन सुहाता है, तब गाँव हमें अपनाता है….
रेखा कापसे.(रेखा कमलेश.✍️)
होशंगाबाद मप्र
स्वरचित, मौलिक, सर्वाधिकार सुरक्षित….