तबाही का मंजर
हैराँ है धरती परेशां है अम्बर
बतला रहा है तबाही का मंजर ।
पापों की गर्मी से कांपे ये धरती
विष की घटा से ढँका है ये अम्बर ।।
किसी की हो करनी किसी को हो भरनी
बतला ही देता तबाही का मंजर ।
पछताओगे क्या ?अपने किये पर
अब खुद के ही सीने में खुद का है खंजर ।।
मानो भी सच को न मानोगे कब तक
झुठी ये दुनियां झूठा बबंडर ।
हम भी न होंगें तुम भी न होंगे
बनाते रहे गर हम धरती को बंजर ।।
हमारी हो श्र्द्धा हम विश्वास उनका
देखा है जिनने तबाही का मंजर ।
मानो न मानो तुम्हारी ख़ुशी है
देखेंगे हम भी तबाही का मंजर ।।