” तपिश ए उल्फ़त ” ( चंद अश’आर )
शीर्षक – ” तपिश ए उल्फ़त ” ( चंद अश’आर )
क्या दूरियाँ-नज़दीकियाँ सब फ़ासले भी हारे हैं ।
उन नशीली आंखों के आगे अब हौसले भी हारे हैं ।।
है बड़ी ताक़त, बड़ी अज़मत उनके इश्क़ में ,
उस तपिश ए उल्फ़त के आगे काफ़िले भी हारे हैं ।।
था मुक़द्दस शबनमी उसकी चाहत का ये रंग ।
अब रहमतों के आगे ये ज़लज़ले भी हारे हैं ।।
ख़ानाबदोश की तरह भटकता रहा ये दिल ।
उन हसीं लबों के आगे ये मरहले भी हारे हैं ।।
उसकी चाहत में था रहना कोई इम्तिहां बड़ा ।
उसके पागलपन के आगे ये दिलजले भी हारे हैं ।।
था नशा नागिन सा उनकी अदाओं में “काज़ी” ।
उनके ज़हर के आगे सब ज़हरीले भी हारे हैं ।।
©डॉक्टर वासिफ़ काज़ी
©काज़ीकीक़लम
28/3/2 , अहिल्या पल्टन ,इकबाल कालोनी
इंदौर ,मध्यप्रदेश