तपस्या!!
अब तक,साधु संतों का,
माना जाता रहा,
तपस्या पर एकाधिकार!
लेकिन,
इस बार के प्रकाश पर्व पर,
माननीय प्रधानमंत्री जी ने,
अपनी तपस्या में,
रह गई है कोई कमी,
कह कर,
तपस्या को व्यापक बना दिया।
मुझ जैसा अज्ञानी ,
मति मुढ,कम अक्ल,
साधु संतों को ही तपस्या में लीन समझ कर,
इस पर उनका ही एकाधिकार मानता रहा !
कभी सोचा ही नही,
तपस्या के मायने होते हैं क्या!
बस यही सोच कर,
मैं लग गया उधेड़ बुन में,
तपस्या में करते हैं क्या!
तपस्या को जानना चाहा,
पहले पहल,साधु संतों पर ध्यान लगाया,
गेरुआ वस्त्रों में ढका अंग,
भृकुटी पर लगा, तिलक चंदन,
लम्बे लम्बे केश,
लेकर हाथ में कमंडल,
अलख निरंजन का स्वर,
गृहस्थियों के घर घर जाकर,
लगाते हुए विक्षाम देही की पुकार,
रुक कर थोड़ी देर,
करते हुए इंतजार,
नहीं मिलता गर,
कोई उत्तर,
चल पड़ते हैं अगले द्वार,
उपेक्षा, अनदेखी,
उलाहना,उपालंभ,
जाने क्या क्या नहीं सहते-सुनते ,
पर फिर भी यही कहते,
देने वाले का भी भला,
ना देने वाले का भी भला!
पर तब भी उन्होंने कभी ये नहीं कहा,
कहीं मेरी तपस्या में कोई कमी रह गई!
गृहस्थी भी जो करते हैं,
अपने अपने परिवारों का गुजर बसर,
अपनी कला कौशल से,
बुद्धि विवेक से,
हाड़ तोड़ मेहनत से,
सरहदों पर जान की परवाह न कर,
या फिर धरती को चीर कर,
उसमें बो देते हैं अपने सपने,
कड़कड़ाती ठंड में,
भीग कर बारीस में,
और तप कर चिलचिलाती धूप में!
इस उम्मीद के साथ,
कल जब उग आएगी फसल,
तो इस बार,
मैं इस की कमाई से,
चुकाऊंगा अपना कर्ज,
बनाऊंगा मैं एक कोठडी,
या फिर बिटिया के हाथ पीले करुंगा,
या फिर बेटे के लिए बहु लेकर आऊंगा
सोचते सोचते रह जाता है,
यह सब,
जब आकर आंधी तूफान,
सूखा हुआ आसमान,
उसकी उम्मीदों को देता है तोड़,
या फिर बाजार में जाकर,
लुटा आता है अपनी उम्मीद,
जब बे भाव बिक जाती है उसकी मेहनत,
तब लागत भी नहीं लग पाती हाथ,
जब किस्तम भी नहीं देती साथ,
तब शायद उसने भी ना कहा होगा,
कहीं कम पड़ गई मेरी भी तपस्या।