तपस्या और प्रेम की साकार प्रतिमा है ‘नारी’
नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत नभ पग तल में।
पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुन्दर समतल में॥
प्राचीन समय से स्त्रियों के नाम के साथ देवी शब्द का प्रयोग होता चला आ रहा है जैसे लक्ष्मी देवी, सरस्वती देवी, दुर्गा देवी आदि नारी के साथ जुड़ने वाले इस शब्द का प्रयोग आकस्मिक रूप में नही हुआ है अपितु ये नारी की दीर्घकालीन तपस्या का ही फल है | वास्तव में पुरुष में ऊर्जा का संचार करने वाली पथप्रदर्शिका को देवी कहा जाता है| आज की नारी भी अपने अंदर वो अतीत के देवीय गुण संजोय हुए है जिन्होंने समाज के समग्र विकास में योगदान दिया है |
कहा जाता है पुरुष के जीवन में माँ के बाद नारी का दूसरा महत्वपूर्ण किरदार पत्नी का होता है| उसके इस रूप को सबसे विश्वास पात्र मित्र की संज्ञा दी जाती है| जीवन के कठिन क्षणों में जब सब नाते रिश्तेदार हमसे किनारा कर लेते है हमे अकेला छोड़ देते है धन संपत्ति का विनाश हो चूका होता है शरीर को रोगों ने जकड़ लिया होता है हम मानसिक अवसाद से ग्रस्त होते है, उपेक्षा जनित एक प्रकार की खीज और चिढ़चिढ़ापन हमारे अंदर आ गया होता है| उस स्थिति में केवल पत्नी ही होती है जो पुरुष को हिम्मत देती है| उससे कुछ और करते ना बन पढ़े तो भी वो कम से कम पुरुष के मनोबल को बढ़ाने उसे हिम्मत देकर उसमे आशा को जगाए रखने का काम तो करती ही है | वो पुरुष को पीयूष रुपी स्नेह से धैर्य बंधाती है उसके आत्मबल को जागृत कर उसके टूटे स्वाभिमान को समेटकर उसे इस लायक बना देती है की वो समाज की चुनौतियों को न केवल स्वीकार करता है अपितु सफल भी होता है|
यदि नारी न होती तो कहाँ से इस सृष्टि का सम्पादन होता और कहाँ से समाज तथा राष्ट्रों की रचना होती! यदि माँ दुर्गा न होती तो वो कौन सी शक्ति होती जो संसार में अनीति एवं अत्याचार मिटाने के लिये चंड-मुंड, शुम्भ-निशुम्भ का संहार करती । यदि नारी न होती तो बड़े-बड़े वैज्ञानिक, प्रचण्ड पंडित, अप्रतिम साहित्यकार, दार्शनिक, मनीषी तथा महात्मा एवं महापुरुष किस की गोद में खेल-खेलकर धरती पर पदार्पण करते।यहाँ तक की राम और कृष्ण धरती पर कैसे उतरते मानव मूल्यों और धर्म की स्थापना कैसे होती | नारी व्यक्ति, समाज तथा राष्ट्र की जननी ही नहीं वह जगज्जननी हैं उसका समुचित सम्मान न करना, अपराध है तथा अमनुष्यता है।
प्राचीन काल से ही नारी में लेने का नही अपितु देने का ही भाव रहा है नारी में दया, क्षम, करुना, सहयोग, उदारता, ममता जैसे भाव भरे रहते है ये दैवीय गुण उसे जन्म से ईश्वर द्वारा प्रदत्त किये जाते है| नारी के ये गुण उसे पुरुष से श्रेष्ठ सिद्ध करते है यदि नारी को श्रद्धासिक्त सद्भावना से सींचा जाए तो ये नारी शक्ति सम्पूर्ण विश्व के कण-कण को स्वर्गीय परिस्थितियों से ओत-प्रोत कर सकती है |
प्रेम नारी का जीवन है |अपनी इस निधि को वो आदिकाल से पुरुष पर बिना किसी स्वार्थ के पूर्ण समर्पण और इमानदारी के साथ निछावर करती आई है |कभी न रुकने वाले इस निस्वार्थ प्रेम रुपी निर्झर ने पुरुष को शांति और शीतलता दी है | स्त्री को एक कल्पवृक्ष के रूप में भी देखा जा सकता है जिसके सानिध्य में बैठने पर न केवल पुरुष को आत्म तृप्ति मिलती है अपितु उसका पूरा परिवार संतुष्टि प्राप्त करता है |
कई दिनों पहले एक महापुरुष की वाणी सुनने का सौभाग्य मिला उन्होंने एक इतना सुंदर विचार दिया जिसकी मौलिकता जिसकी सत्यता ने मुझे ये लेख लिखने के लिए प्रोत्साहित किया |
वो महापुरुष बता रहे थे की यदि सारे संसार से केवल स्त्रीयों को हटा दिया जाए तो इस समूचे ब्रह्माण्ड का विनाश निश्चित है क्योंकि स्त्री के अभाव में तो सृष्टि आगे चल ही नही सकती शक्ति के अभाव में शिव भी शव समान हो जाते है |बात सोलह आने सच भी है स्त्री ही परिवार और समाज की निर्मात्री है वो ही वंश परम्परा को आगे बढ़ती है| लेकिन उनकी बात यहाँ पर ही समाप्त नही हुई उनहोंने आगे बोला की यदि इस समूचे ब्रह्माण्ड से पुरुष जाति को समाप्त कर दिया जाए तब भी स्त्री अकेले ही स्त्री का न केवल निर्माण कर सकती है बल्कि उसे आगे भी बढा सकती है |
ये विचार सुनकर मुझे बढा आश्चर्य हुआ की ये कैसे सम्भव है मैं उन महापुरुष से ये पूछ बैठा की महाराज ऐसे कैसे अम्भव है क्योंकि स्त्री तो धरती होते है और पुरुष आकाश के समान है और जब आकाश रुपी पुरुष का स्नेह बीजके रूप में जब धरती के गर्भ में पहुँचता है तब ही तो धरती से कोमल पोधों का सृजन होता है |तब उन्होंने कहा की जो बीजआकाश रुपी पुरुष धरती रुपी स्त्री को सौंप देता है स्त्री उसके द्वारा हजारों बीज बना लेती है तो जो गर्भवती महिलाएं इस धरा पर रह जायेंगी वो पुरुष का अभाव होने के बाद भी उनके बीज से सृष्टि का निर्माण करने में सक्षम रहेगी जबकि पुरुष के पास ये योग्यता नही है तो इस प्रकार यदि सृष्टिसे पुरुष समाप्त भी हो जाएँ तो स्त्रियाँ तो सृष्टि फिर से रच देने में सक्षम है लेकिन यदि समूची स्त्री जाति नष्ट हो जाए तो पुरुष स्त्री को नही रच सकता |
क्योंकि नारी सनातन शक्ति है और ये सामान्य जीवन में देखने में भी आता है की स्त्री अपने जीवन में इतने सामाजिक दायित्वों को उठाकर पुरुष के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर चलती है | यदि उन दायित्वों का भार केवल पुरुष के कंधे पर ही डाल दिया जाए तो पुरुष मझदार में ही असंतुलित होकर गिर पढ़े | जब कोई व्यक्ति अपने भवन का निर्माण करता है तो सबसे पहले नीव खुदवाता है ना केवल खुदवाता है बल्कि अच्छे से अच्छे चुने मिट्टी का प्रयोग करता है जिससे की एक मजबूत नीव के उपर एक सुद्रण भवन स्थापित हो सके उसी प्रकार स्त्री भी परिवार में मूक रूप से नीव के पत्थर का कार्य करती है जिस पर पूरा परिवार निर्भर करता है |
नारी के आभाव में एक संस्कारी सभ्य परिवार की कल्पना नही की जा सकती |अत: नारी हर परिस्थिति में वन्दनीय है वो पुरुष की पथ प्रदर्शिका है उसकी प्रेरणा स्त्रोत है |पुरुष सदैव स्त्री का ऋणी रहा है और आगे भी रहेगा |