तपन सूरज की
तपन सूरज की
वह आदित्य जो सर्दियों में सुखद था
ठिठुरती हवाओं में संबल सभी का
अब बह चली अरि उमस भरी पछुआ
दिनकर भी अब हिंसक हो चला है।
अंगड़ाई बसंती कहां खो गई जो
तपन सूरज की डराने लगी है।
डराती है दुनिया को सूरज की दस्तक
अब मानव गृहों में दुबकने लगा है
अब बह चली अरि उमस भरी पछुआ
खुली पीठ अब तो जलने लगी है।
आगाज़ गर्म हवाओं का है
तपन सूरज की डराने लगी है।
चलो फिर गर्मी से दो-चार कर लें
तभी तो अमृत * का आना भी होगा
अब बह चली अरि उमस भरी पछुआ
पाना भी खोए बिना कुछ कहां है?
संघर्षों से बनता है जीवन हमारावं
तपन सूरज की डराए तो क्या है?
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–राजेंद्र प्रसाद गुप्ता, मौलिक/स्वरचित।
*अमृत = वर्षा, बारिश के अर्थ में।