तपती दोपहरी
धधक रही है सूर्य ताप से दोपहरी
आकुल व्याकुल हैं जनमानस
पशु-पक्षी, जीव जंतु, कीड़े मकोड़े
पेड़ पौधे और वनस्पतियाँ।
सूख गये सब ताल तलैया, झील पोखर
नदियां नाले सदृश हो गये हैं
जल स्रोत कराह रहे हैं।
सड़कों पर वीरानी छाई है
बीमारियां बढ़ रही हैं
जीवन पर संकट बढ़ रहा है
यह प्रकृति का कहर है
जिसे हमने आपने खुला आमंत्रण दिया है।
हम धरती से दुश्मनी सी निभा रहे हैं
हरियाली विहीन धरा का नव निर्माण कर रहे हैं
जल स्रोतों, तालाबों, झील, पोखरों, कुओं को
मिटाने पर जोर शोर से आमादा है,
नदियों नालों पर अतिक्रमण बड़ी शान से कर रहे हैं,
और अब तपती दोपहरी में विलाप कर रहे हैं।
जबकि इसके असली गुनहगार हमीं आप हैं
पानी की कमी का रोना भी तो आज रो रहे हैं
और तपती दोपहरी को कोस रहे हैं,
यकीनन हम खुद ही नहीं समझना चाह रहे हैं
कि तपती दोपहरी को निमंत्रण भी तो
हम आप ही हर दिन फागुनी भेज रहे हैं।
सुधीर श्रीवास्तव