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9 Nov 2023 · 1 min read

तन्हाइयां

मिल जाये कभी अगर आँखे दिलनशी से,
कौन रोक पाए फिर दिल – ए -नादान को।

गिर गई हो जिसकी दीवारों समेत छत भी,
फिर कौन समझे आशियाँ उस मकान को।

आते ही चले जाने की फ़िक्र होने लगती है,
पहले के जैसा दर्जा कौन देता मेहमान को।

लगता हमे आदत हो गयी है सच बोलने की,
वरना बात- बात पे कौन खुजाता है कान को।

तरस रहा हो जो सूखी रोटियाँ खाने के लिए,
प्यासे रह कर नींद कहां आयी उस इंसान को।

अब पूछो न हालत तुम किसी रोज मेरी,
गर्दिशों में आँसू दिखाये जा रहे आसमान को।

अनिल “आदर्श”

Language: Hindi
2 Likes · 1 Comment · 631 Views
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