“तद्भव”
कापी,पेस्ट,क्लिक के ज़माने में मौलिकता कहीं खोती जा रही है।आपकी रचना कोई चुरा कर आपके सामने प्रस्तुत करता है तो लगता है पढ़ी हुई/सुनी हुई लगती है।चलो इस कविता के बहाने खोजें मौलिकता:-
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“तद्भव”
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ढूँढो सब
अपने अपने तद्भव
अपभ्रंश हो गये
खेल ,खिलौने
सभ्यता ,संस्कृति
कहाँ गये ?
हमारे उद्भव
अर्थ भी ढूँढो
अपने अपने
अनर्थ हुये
सारे तत्सम।
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राजेश”ललित”शर्मा