तख्खलुस
डॉ अरुण कुमार शास्त्री – एक अबोध बालक // अरुण अतृप्त
तख्खलुस
आशिकी के हिज्जे आयेंगे समझ
तुम डूब कर तो देखो मेहरे सलाम में
तुमसे नज़र क्या मिली होश उड़ गए
घर से लापता थे अब दींन से गए
आना कहाँ था मुझको तेरे मयार में
कुछ गलतियाँ हुई कुछ गमख्वार मैं
रूठना मनाना उनको तो रोज़ की बात थी
कोई ऐसे भी रूठा होगा जो पलटा ही नहीं
दर्द देकर दवा देता है वो यार मिरा
किस तरहां का रहनुमा है यार मिरा
हुस्न वालो से बच के रहा करो समझे
काट लेते हैं और दर्द भी होने नहीं देते
लो चलो अब तो दोस्ती कर लो जानम
मास बारहा बीते है लिव इन में रहते हमको
आशिकी के हिज्जे आयेंगे समझ
तुम डूब कर तो देखो मेहरे सलाम में
ये समंदर भी एक अबोध बालक के जैसा है
गले मिलता है रह रह के रुलाता है भिगोता है