तकिया
खूबसूरत दुनियाँ में आने से पहले
माँ का गर्भ ही मेरा मात्र तकिया था
किसी शहनशाह के तख्तेताऊस सा
वो सर्वदा ऊँचा मुझे लगा करता था
स्मृतियाँ अस्तित्व की बुलबुलों बन
उठ सुंदर भूत में ले जाती है मुझको
जहाँ भूल मैं दुनियाँ की विद्रूपता को
चैन की नींद सोया करती थी रोज
खोल पलक रखा डग दुनियाँ में
अविरल तकियों को बदलती रही
कोख के तकिये में बेखटक सोयी
पा के कन्धे से लग कर मुस्कायी
कपड़े का तकिया मिला जब से
रंग बदलते हर पल जहाँ के देखे
सिरहाना कहूँ या तकिया दोनों ही
तब से आज तक मुझे न ये भाये
तकिया अच्छा लगता है बाहों का
वो ही सिरहाना मुझे बस भाता
दुनियाँदारी से दूर राहत दिलाता
हर पल वजूद का भास कराता
डॉ मधु त्रिवेदी