तक़दीर का क्या, कभी रूठी, कभी संभल गई
सारी क़वायदें, बेपरवाह जु़स्तुज़ू में लग गई,
और उम्र का क्या, उसे ढलना था, ढल गई।
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जवानी, बा-मुराद गुज़र रही थी, गुज़र जाती,
मगर, एक रोज़ ये कमबख़्त नज़र फिसल गई।
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कल तक मेरे बाजू में खड़ी परहेज़ी दीवारें थी,
जाने आज कहाँ, जवां हवाओं में बहक गई।
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मैंने रखी थी किताबों के बीच, तस्वीरें अपनी,
देखा,मेरे ख़यालों की तरह, वो भी बदल गई।
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ख़ुदा का क्या,रईसों के क़रीब, ग़रीबों से फ़ासले,
तक़दीर का क्या, कभी रूठी, कभी संभल गई।