~~~तकदीर का खेल ~~~~~
तकदीर का खेल देखो, कैसे खेला जा रहा
बंदा अपने कर्मो से अपने गुनाह कर रहा
किस्मत भी साथ दे देती है उनकी यहाँ
और वो गुनाह पर गुनाह किये जा रहा !!
फंसा कर अपने प्रेम जाल में खुद को भी
सितम अपने दिल पर वो खुद ही ढा रहा
कहता है फुर्सत ही नहीं मिलती तेरे लिए
बस यह मन ही उसका अब यहाँ भा रहा !!
चिराग बुझा कर अँधेरी रात में सब कुछ
उस तक़दीर के साथ साथ है बुझा रहा
देखा है “अजीत” ऐसे कुछ लोगो को मैने
जो अपने हाथों से ही अपना घर जला रहा !!
किस्मत उस की जबकि उस के साथ साथ
उस गुनाह को कबूल करवा रही है
वो अनजान इतना बन गया है कि जीवन रूपी
जलता हुआ चिराग, खुद बा खुद बुझा रहा !!
अजीत कुमार तलवार
मेरठ