ढूँढते ढूँढ़ते यूँ ख़ुदा मिल गया
जो कभी था मेरा वो बिका मिल गया
ज़िंदगी का अज़ब ये सिला मिल गया
थे कभी लब पे चर्चे हमारे मगर
आज चर्चा ही लब पे ज़ुदा मिल गया
कल तलक शान-ओ-शौक़त से था जिया
आज मिट्टी में वो भी पड़ा मिल गया
बन गए सब के घर अब रुई के यहाँ
हाथ में आग ले, वो खड़ा मिल गया
माँगता खूब था रब से वो ज़िंदगी
आपका यूँ वहाँ से पता मिल गया
वक़्त रहते कभी जो न मेरा हुआ
दर पे वो भी किसी के खड़ा मिल गया
नज़रे तेरी मुझे सब बयाँ कर रही
नाम का तेरे इक क़ाफ़िया मिल गया
बंद हाथों में उसके था क्या क्या यहाँ
सोचते – सोचते कुछ नया मिल गया
हम चले है सफर में अकेले तो क्या
ढूँढते – ढूँढते यूँ ख़ुदा मिल गया
-आकिब जावेद