ढूँढती है निगाहें (मार्मिक कविता)
तुम्ही बताओ न जाने क्यूँ?
दिलो जाँ से मुहब्बत करने वाले
शायद अब कभी ना मिलेंगें
पर कैसे बताऊँ तुम्हें? ढूँढती है निगाहें.
हर एक सूरत में हर कहीं
सिर्फ़ तुम ही नज़र आती हो
जैसे ही तुमसे कुछ कहता हूँ
ख्वाबों में भी तुम शरमा जाती हो.
कभी रूठना कभी मनाना
इक दूजे को चाहा ही तो था
इज़हारे ईशक हुई कब क्या बताएं?
किसी का कुछ बिगाड़ा तो नहीं था?
आखिर मार डाला ही हम दोनो को
फिर भी ना बदली इनकी फिलींग
कुछ मत कहो ये सब मुहब्बत के दुश्मन
कब्र खोदकर भी करेंगें आॅनर किलींग
आखिर कब तक एसा क्यूँ?
शानो शौकत से करते रहेंगे आनर किलींग
और कितनो की जान लोगो? कुछ तो बोलो?
फिर भी वही सोचेंगे न बदलेगी इनकी फिलींग.
पुछूँगा कभी खुदा से आखिर क्यों?
इंसा के दिलों में मुहब्बत दी
पर मुहब्बत के दुशमनो को
इंसानीयत की सीख न दी.
इज़हारे इशक कभी देखा तुमने
जैसे कुछ कहती थी मेरी निगाहें
इस पार बैठे हम समंदर के उस पार तुम
शायद अब भी तुम्हें ढूँढती है निगाहें.
कवि- किशन कारीगर
(©काॅपीराईट)