ढह गया …
ढह गया …
ढह गया सपनों का महल
खंडहर हो गई ख्वाहिशें
बेवफ़ाई की बुनियाद पर
बिखरी इश्क़ की बंदिशें
वीरां हुई मन की कोठरी
सपनों पर लगी सीलन
दहलीज़ अंदर पसरी हुई
कोने कोने दर्द की खुरचन
चुभती कील सी ख़ामोशी
चीरती दीवारों का मौन
बस चाहा सहा कुछ न कहा
भला इतना सहता है कौन
दिल की दरारों से रिस रहे
मोहब्बत के अफ़साने
बेहतर था जो हम होते
अजनबी अपरिचित अनजाने
रेखांकन।रेखा ड्रोलिया