ढहती मूर्तियाँ
ढहती मूर्तियाँ
विषैली हवा चली है
चींटियाँ कतारें बना रही हैं
होने वाली है बारिश विषाक्त
चिड़ियाँ भी घरों को लौट रही हैं
वे जिनको मरती दबती कुचली हुए रूह नहीं दिखतीं
जिनको क़ीमती गाड़ियों के नीचे आए लोग नहीं दिखते
जो किनारे बैठे जूता सिलते मोची को तिरस्कृत करते
भीख माँगते बच्चों को देख मोड़ लेते हैं अपनी नज़र
जो व्यस्त थे आज़ादी के मायने बदलने में
और वे जो फ़र्राटे से अंग्रेज़ी में गलियाँ दे रहे थे
लहू में जिनके शराब और चिलम जम गया है
दिल और दिमाग में ताले पड़ चूके हैं
जिनकी बिसात मात्र पाँच प्रतिशत से ज़्यादा नहीं
सब इकट्ठा होने लगे हैं
आशंकाएँ घिरने लगी हैं
लगता है कोई मर गया है
धीरे-धीरे मातम पसर रहा है
अचानक चिटियाँ, दीमक, मुर्गी, कुत्ते, बिल्ली
फिर से इकट्ठा हो रहे है
तोड़ने लगे हैं इतिहास को
चाटने लगे हैं बरसों पुराने ग्रंथ
और कुतरने लगे हैं उसके शब्द
अचानक उनमें इतनी शक्ति आ गयी
कि टूटने लगी हैं आदमकद मूर्तियाँ
वे मूर्तियाँ जिनका सिर्फ़ एक सदी से
कुछ लेना देना नहीं था
जो अपने अपने सच के साथ खड़ी थीं
चिर परिचित पुरातत्व की व्यवस्था का प्रतीक बनकर
वो ढहती मूर्तियाँ कुछ नहीं कहती है
बस टूटती आँखों से तकती रहती हैं
समाज को आइना दिखाते
सही सही है और ग़लत ग़लत
ये सारे फ़र्क़ को समझाते
वो सब के सब एक साथ कैसे ढह रहे है
वो सब के सब एक साथ कैसे टूट रहे है
चींटियों में इतनी ताक़त कहाँ से आई है
ये वहशी हिमाक़त कहाँ से पाई है
अगर ये विष इतनी तेज़ी से फैलता है
तो सदभावना क्यों नहीं पसरती
सच्चाई त्वरित क्यों नहीं होती
आदमियत मुँह छुपाए क्यों खड़ी है
दुनिया अजीबोगरीब पेशोपेश में पड़ी है
बस रोज़ खोज रहा एक झुंड मनुष्यों का
एक दूसरे झुंड को…..,,,,,
यतीश ८/३/२०१८