ड्योढ़ी मंदिर की
————————————
बहुत ऊंची है ड्योढ़ी मंदिर की।
बौनी है मेरी याचना।
बहुत स्वच्छ है रास्ते तेरा देवता,
देह मेरा देखो कितना घिनौना।
एक टुकड़े प्रसाद या एक सिक्के की
मेरी है चाहना।
मैं एक बूढ़ा और अशक्त आदमी
तेरे चौखट पर, देवता, मुझे पहचानना।
आने दो मुझे अन्दर
मुझे तेरे चरण स्पर्श है करना।
तुम आकाश से नीचे उतर आए
मैं अब भी ताकता आकाश हूँ।
तुम सोने से सज गए
मैं जन्म से अब तक अपनी ही प्यास हूँ।
वक्त ने किए हैं अत्यंत टेढ़े-मेढ़े,
तुम मेरे सारे अंग देखो।
हमारे लिए तूने क्यों चुने हैं भिक्षा?
देवता ईमानदारी से कहो।
असीम क्रोध तो है मेरी आँखों में पर,
नहीं दे सकता तुझे श्राप।
श्राप के लिए श्राप देने की प्रवृति
तेरी है, मेरे लिए है पाप।
मन्नतें मांगकर लौट रहे तेरे भक्तों पर
आक्रोशित है मेरा मन।
चढ़ावे चढ़ाकर लौट रहे सारे तेरे लोग
निकले तुझसे भी ज्यादा बड़े विपन्न।
प्रवेश-निषेध की पट्टी मेरे गले का फंदा।
वस्तुत: यह है किसी न किसी का धंधा।
वरदान उसे ही क्यों देवता?
तेरा करिश्माई वरद-हस्त काश! मैं भी देखता।
तुम भी मेरी आँखों में देखो मनुष्य।
विस्तृत आकाश का सूनापन दिखा क्या?
याचना में फैले मेरे सिकुड़े हथेलियों को
देखो करुणा से।
उदर में बिलखते क्षुधा के आँसू दिखे क्या!
गौर से देखना,मेरे चेहरे पर दरके पहाड़ हैं।
मेरे होने की निरर्थकता के रोते दहाड़ हैं।
देवता तुम ड्योढ़ी से स्वयं को उतारना।
मुझे हाथों से उठाना।
———————8/1/22—————