डॉ अरुण कुमार शास्त्री –
डॉ अरुण कुमार शास्त्री –
एक अबोध बालक – अरुण अतृप्त
18th स्टोरी से नई दिल्ली स्टेशन की तरफ़ दिल्ली का नजारा
उसी पर एक व्यंग्यात्मक गीतिका
मेरी दिल्ली मेरी ज़ान
दिल से मन से तुझपे कुर्बान
सुबह सुबह जब उठता हूँ
देख नज़ारा हँसता हूँ
धूल भरी तेरी सड़कों पर
मास्क पहन कर चलता हूँ
धूल गंदगी बदबू घुटन से
नाक बंद मैं रखता हूँ
दिन जैसे जैसे चढ़ता जाता है
परिवहन के शोर में
कुछ भी नहीं सुन पाता हूँ
मित्र मुझे अब बहरे पन की
नाहक़ संज्ञा देते हैं
बात हुई बेकार हो तुम तो
ताने मुझको देते हैं
वातावरण हुआ सब दूषित
जीवन हुआ अति है दूभर
जैसे तैसे चलती गाड़ी
रेंग रेंग कर मेरी जिंदगानी
कौन सुनेगा किसको दिखाऊँ
सड़क के गड्ढे किसको बताऊँ
क्या अफसर सरकार के अंधे
अब अंधों को क्या व्यथा सुनाऊँ
बारिश के मौसम में
सड़कों की हालत
सीवर के नाले सी हो जाती
कौन गिर पड़े इनमें भईया
जनता जिसकी सूचना
कभी न पाती
लिखते लिखते थक जाऊँगा
दुखद दृश्य न भूल पाऊँगा
शायद कोई देव पुरूष ही
लेगा इन सब का संज्ञान
मेरी दिल्ली मेरी ज़ान
दिल से मन से तुझपे कुर्बान
सुबह सुबह जब उठता हूँ
देख नज़ारा हँसता हूँ
हे राम हे राम हे राम हे राम