डूब जाता हूँ
डूब जाता हूँ अंधेरे की समंदर में
जानता हूँ मगर फिर भी ख़ुद को
बचा नहीं पाता, ढूँढ़ लेता हूँ दरिया को
यह भी चरम् आनंद क्षण का, फिर वहीं
निष्प्रभ बदन हो जाता हूँ, सोचता न करूं
किंतु खुद को रोक नहीं पाता, फिर चली
वहीं आनंदित भव को खोजते, उतावले – सी
बहाता अपनी स्मृति समंदर – सी, सौंदर्य के
बगिया में खिला कली नहीं कदाचित् है वो
मुरझाई फूल चला अस्तित्व मिटा स्वं के
सृजनक्रम के नव पंख देने परिणय – परिमल को
पंख तो उड़ान भरते ही हैं, ये नव्य अलंकृत कलित
ऐसा क्यों होता, यौवन अपनी क्रांति में सृजनओर!
तड़प जाता ह्रदय, पता नहीं किसके विपरीत मिलन में
सृजन में आनंद भर जाता है मानो जन्नत का हो सैर
मिले श्वेत कण अण्ड में, कीस है शून्य, कूच सृजनहार
समर्पण है दो बदन, संपूर्णता, शृंगार, स्पर्श और चुंबन भी
नयन, जीह्वा, केश, कर, पद, जानू साथ तत्व सृजन के
सहवास ईश – तिय मिलन में मिलते एक हैं, एक हैं
यह अंधेरी नहीं ये समंदर है नए सृजन के सन्देश