डिफाल्टर
डिफाल्टर
हमारे गाॅव में एक परमानन्द जी का परिवार रहता था। शाम को जब मेहनतकश मजदूर,बटोही घर पहुँच कर विश्राम की मुद्रा में होते थे,तब, परमानन्द जी के यहां महफिल जमा करती थी। रात्रि के सन्नाटे को चीरती हंसी -ठहाके खिलखिलाने की आवाज से लोग ये अन्दाज लगा लेते थे, कि, परमानन्द जी का परिवार अभी तक जागा हुआ है। इस तरह कहें तो गांव की रौनक इस परिवार से ही थी। वरना दीन-दुखियों, शराबी-कबाबी,जुआरियों सट्टेबाजो, नशेडी- भगेंडी लोगो की कमी नही थी हमारे गांव में ।
हमारा गांव यमुना पार बसा हुआ था। बस थोड़ी ही दूर पर रेलवे स्टेशन बस अड्डा, पोस्ट ऑफिस भवन पास-पास ही थे । मेरे पिता जी तब स्टेशन सुप्रीटैन्डेन्ट हुआ करते थे| लोग आदर से उन्हे वर्मा जी कहा करते थे । वैसे उनका पूरा नाम श्री प्रेम चन्द्र प्रसाद वर्मा था । कभी-कभी पिता जी परमानन्द जी की महफिल में भी शामिल हुआ करते थे । हम तब बच्चे हुआ करते थे, और, पिता जी एवं परमानन्द जी की रसीली किन्तु सार्थक बातों को ध्यान से सुना करते थे ।
श्री परमानन्द जी चार भाई थे| सबसे बडे़ परमानन्द जी स्वंय, दूसरे नम्बर पर भजनानन्द, तीसरे नम्बर पर अर्गानन्द और चौथे नम्बर पर ज्ञानानन्द जी थे |चारों भाइयों में क्रमश : दो वर्षो का अन्तर था। परमानन्द जी 60 वर्ष के पूरे हो चुके थे। चारों भाई परम आध्यात्मिक एवं अंग्रेजी संस्कार के परम खिलाफ थे। घर में बहुयें घूँघट में रहती थी,व, बच्चे दबी जुबान में ही बात कर सकते थे । बड़े संस्कारी बच्चे थे| ये सब भ्राता आर्युवेद एवं शास्त्रो के बड़े ज्ञाता थे। अंग्रेजी औषधियों का सेवन भी पाप समझते थे ।
एक दिन की बात है, परमानन्द जी के सिर में दर्द उठा, फिर चक्कर भी आया| ह्रष्ट -पुष्ट शरीर में मामूली सा चक्कर आना उन्हे कोई फर्क नही पड़ा । वे वैसे ही मस्त रहा करते थे। अचानक एक दिन साइकिल से जाते वक्त सब्जी मण्डी के पास उनकी आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा| जोर से चक्कर आया, वे गिर पडे़। लोग उन्हे उठाने दौड़ पड़े | लोगों ने उन्हे अस्पताल पहुँचाया,उनका रक्त-चाप अत्यंत बढ़ा हुआ था। डाक्टर साहब ने अंग्रेजी दवाइयां खाने को दी, जो जीवन रक्षक थी| लोगों के लिहाज या डाक्टर साहब की सलाह मान कर उन्होंने दवाइयां ले ली परन्तु उन्हे इन दवाइयों का सेवन जीवन भर करना मंजूर नही था। अतः उन्होने कुछ दिनो के पश्चात इन दवाइयों का सेवन बन्द कर, जडी़ बूटियों और परहेज पर विश्वास करना शुरू कर दिया।
कुछ दिन बीते कुछ पता ही नही चला । उच्च रक्त-चाप कोई लक्षण प्
प्रदर्शित नही कर रहा था अतः उन्होने सब कुछ ठीक मानकर औषधियों का सेवन भी बन्द कर दिया ।
अब तक दो वर्ष बीत चुके थे। परमानन्द जी प्रातः उठे,तो, प्रकाश के उजाले में उन्होने बल्ब की रोशनी में इन्द्र धनुषी रंग नजर आने लगा| बायां हाथ और बायां पैर कोशिश करने के बावजूद कोई गति नही कर रहा था । कुछ -कुछ जुबान भी लड़ खड़ा रही थी| मुख भी दायीं ओर टेढा होे गया था |पलकें बन्द नही हो रही थी, सारे लक्षण पक्षाघात के प्रकट हो चुके थे| डाक्टर को बुलाया गया, उस समय हमारी तरह 108 एम्बुलेैंस नही हूुआ करती थी कि फोन लगाओ और एम्बुलेैंस हाजिर और उपचार शुरू, बल्कि, डाक्टर महोदय बहुत आश्वासन एवं मोटी फीस लेकर ही घर में चिकित्सा व्यवस्था करने आते थे ।
डाक्टर का मूड उखड़ा हुआ था, जब उन्हे यह मालूम हुआ कि उच्च रक्त-चाप होते हुये भी परमानन्द जी ने औषधियों का सेवन दो वर्ष पहले ही बन्द कर दिया था ।उसके बाद न तो रक्त-चाप ही चेक कराया न ही कोई परामर्श लिया । डाक्टर के मुख से अचानक निकला डिफाल्टर, ये तो बहुत बड़ा डिफाल्टर है| जान बूझकर इसने दवाइयों का सेवन नही किया, न ही, सलाह ली । नतीजतन इसको अन्जाम भुगतना पडा़ अब इसका कुछ नही हो सकता |इसे मेडिकल काॅलेज ले जाओ, तभी इसकी जान बच सकती है। अभी पक्षाघात हुआ है अगर हृदयाघात भी हुआ तो जान भी जा सकती है।
परमानन्द जी के परिवार पर मुसीबत का पहाड़ सा टूट पडा़ था। आनन- फानन में वाहन की व्यवस्था कर उन्हे मेडिकल काॅलेज ले जाया गया। डाक्टरों के निरंतर प्रयासों से परमानन्द जी की जान तो बच गयी, परन्तु,वे जीवन भर बैसाखी के सहारे जीते रहे|
हिन्दी- अंग्रेजी संस्कारो के टकराव ने औषधियों और मानव जीवन में भी भेद कर दिया | चिकित्सा विज्ञान की कोई जाति नही होती,कोई धर्म नही होता है। चिकित्सा विज्ञान देश -काल की सीमाओं से परे केवल मानवता के हित में होता है| उसका उद्देश्य जीवन के प्रत्येक पलों को उपयोगी सुखमय एवं स्वस्थ्य बनाना होता है। अतः डिफाल्टर कभी मत बनिये |हमेशा डाक्टर की सलाह को ध्यान से सुनिये व पालन कीजिये, तभी,मानवता की दृष्टि में चिकित्सा विज्ञान का अहम योगदान हो सकता है |
डॉ प्रवीणकुमारश्रीवास्तव,
8/219विकास नगर, लखनऊ, 226022
मोबाइल-9450022526
स्वरचित “कथा अंजलि” से संदर्भित कहानी |