डाल अवगुंठन
काव्यानुवाद
अभिज्ञान शांकुतलम् से उस समय का श्लोक जब शकुंतला आश्रम से विदा हो रही है और सखी अनुसूया उसके साथ है ।मार्ग में विरहाकुल चकवी को देख कर शकुंतला व्यथित हो जाती है …..
“”एषापि प्रियेण विना गमयति रजनी विषाद दीर्घतराम्!
गुर्वपि विरह दुःखमाशा बन्ध्ःसाहयति “”
अर्थात् –चकवी भी प्रत्येक रात्रि अपने प्रियतम के बिना व्यतीत करती है, जो रात विरह के दुःख से और भी लंबी प्रतीत होती है।परंतु मिलन की आशा का बंधन भी इस महादुःख को भी सहन करवा देता है।
उपरोक्त मिश्रित भावों यानि पिता का आसरा छूटने और प्रिय के वियोग व मिलन के भावों पर मेरा काव्यानुवाद प्रयास
मापनी 14/14
डाल अवगुंठन मैं चली
कृष्ण यामिनी पुकारती
सद्यस्नात चाँदनी देख
वसुधा ड्योढ़ी बुहारती।
गीत खोये सब प्रणय के
कंठ क्यों अवरुद्ध होता ?
डूब काम के भंवर में ,
हृदय क्यों अब क्रुद्ध होता?
खोल लाज पट झाँक रही ,
था नीरव पथ निहारती।।
हुये विस्मृत कब देह से
श्वांसों के अनुबंध अकल
खोल द्वार स्मृतियाँ मचली
खड़ी रात भर रही विकल ।
ओढ़ धवल अवगुंठन तब ,
छुवन तुम्हारी दुलारती।।
देख !तोड़ सब बंध चली
प्रश्न अब क्यों उठने लगे।
छिपा सब वेदना उर की,
अश्रु क्यों अब झरने लगे।
पाँव कंटक भी चुभ रहे
व्रीडा हर क्षण सहारती।।
प्रियतम से मिलन की आस
चातिका भी देखती है
हो आतुर ,विरहाकुल वो
त्यागूँ प्राण ,न सोचती है
प्रतीतती रजनी दुष्कर
भरे आस मन,पुकारती।।
स्वरचित ,मौलिक सृजन
मनोरमा जैन ‘पाखी’
भिंड मध्य प्रदेश