डाकिया डाक लाया
शाम को बाजार घुमते हुए मेरी नज़र अकस्मात इस लेटर बाॅक्स पर पड़ी। स्वत: स्फूर्त्त सड़क की बायीं ओर गाड़ी लगा कर मैं चुल्हे के रुप में सेवा दे रहे लेटर बाॅक्स के करीब गया। एक साथ मस्तिष्क में कई तार झंकृत हो गये और सिनेमा के रील की तरह घटनाक्रम सामने से गुजरने लगे। बाल मन से लेकर अब तक का एक अपनापन का नाता इस लेटर बाॅक्स से और उसकी इस भयानक दुर्गति को देख कर मन तो खौल गया। बचपन में घर से पत्र कभी इस बक्से में गिराने के लिए इस कड़ी हिदायत के साथ मिलता था कि पत्र गिराते ही ढ़क की आवाज अवश्य सुन लें। हम पंछी उन्मुक्त गगन के वाली बचपना के कारण ढ़क वाली बात भूल जाते और घर लौटते वक्त अचानक याद आता। फिर भय से रिवर्स गियर लगा कर पोस्ट ऑफिस पहुॅंच जाते। दिमाग काम नहीं करता वहीं मॅंडराते रहते। अचानक पोस्ट मास्टर चाचा की नजर पड़ती तो पूछ बैठते कि कुछ खो गया। शरमाते हुए उन्हें जब बताते तो वे हॅंसते हुए बोलते कि निश्चिंत होकर जाओ चिट्ठी हम पहुॅंचा देंगे। डाकिया द्वारा पोस्टकार्ड, अंतर्देशीय,लिफाफा के रुप में पाये गये पत्र को पाने के बाद परमानन्द की अनुभूति के बारे में उस समय के लोग ही सही सही बता सकते। उस समय पत्र लेखन ही संचार का शक्तिशाली माध्यम हुआ करता था। मोबाईल और इंटरनेट क्रान्ति ने इतनी चालाकी से इस लेटर बाॅक्स से लोगों का मोहभंग किया कि साॅंस लेने लायक नहीं छोड़ा। पोस्ट ऑफिस भी अब नये अवतार में अवतरित होकर मार्केट में अपना पैठ बनाये रखने के लिए तरह तरह के प्रयोग को अपना रहा है पर उनका क्या जिनकी गहरी यादें इनसे कभी जुड़ी हुई थी और एक अपनत्व का नाता था कभी।