डर. नहीं जाता
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डर नहीं जाता
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न कहलाता कभी वो बुत तराशा ग़र नहीं जाता ।
इबादत भी नहीं होती नवाया सर नहीं जाता ।।
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रवानी हो नहीं जिसमें उसे दरिया नहीं कहते ।
निकट दरिया ही’ जाता है कभी सागर नहीं जाता ।।
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न देखो पाँव के छाले तलाशो है कहाँ मंजिल ।
सिकंदर है वही जो जंग से डर घर नहीं जाता ।।
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जवानी चार दिन की है उतरना एक दिन पानी ।
सुनहरा हाथ से छोड़ा कभी अवसर नहीं जाता ।।
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लिखा कुछ भी नहीं खाली सफे सब जिन्दगी के हैं ।
कलम भी हाथ में है पर लिखा अक्सर नहीं जाता ।।
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भरोसा कुछ नहीं किस मोड़ पर साँसें ठहर जायें ।
मग़र इस मौत का दिल से निकल कर डर नहीं जाता ।।
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-महेश जैन ‘ज्योति’
मथुरा ।
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