डर के साये में जिंदगी
डर के साए में जिंदगी
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हालात से मजदूर जूझ रहे हैं,
अपनों से मिलने कोसों दूर चल रहे हैं।
यह कैसी विपदा आन पड़ी है ,
डर-डर के साए में जिंदगी ये जी रहे है।
गरीबें आज रोटी के लिए तरस रहे हैं,
बेबस लाचारी सी जिंदगी जी रहे हैं।
सुन लो जी?भारत के यहीं थे निर्माता ,
डर-डर के साए में जिंदगी ये जी रहे हैं।
गरीबों को ट्रक में भरकर ला रहे है,
अमीरों को वायुयान में बिठा रहे हैं ।
जरा सबको बता दे ये भेद को आज,
डर-डर के साए में जिंदगी ये जी रहे हैं।
मौत जिसके सामने नाच रहे है,
उनके रिश्ते वाले सब दुख बाँट रहे है।
कहीं इसकी चपेट में तो न आ जाए,
डर-डर के साए में जिंदगी ये जी रहे हैं।
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रचनाकार- डिजेन्द्र कुर्रे “कोहिनूर”
पीपरभावना,बलौदाबाजार(छ.ग.)
मो. 8120587822