डर एवं डगर
डर एक नकारात्मक भावना है।मनोविज्ञान के अनुसार,यह एक जैविक प्रतिक्रिया हैं जो तभी उत्पन्न होता है जब हमारा दिमाग खतरनाक और नुकसान पहुंचाने वाला समझता है, जब हमारे वर्तमान वातावरण में कोई बदलाव आता है या फिर हम भविष्य में होने वाले खतरों को कल्पना करने लगते है।
आमतौर पर लोग डर को इसी व्याख्या या स्पष्टता से समझते या समझाते है। व्यहारिक जीवन में अवलोकन करने से ये स्पष्ट हुआ कि भय असीम है किंतु अपराजेय नहीं। संयम एवं संकल्प-निष्ठ व्यक्ति मन के विकारों से निजात पा सकता हैं।
आरोही महज सात साल की बच्ची है। घर परिवार से संपन्न हैं और वो घर की सबसे छोटी हैं। उसका परिवार संयुक्त हैं और बड़ों में काफी स्नेह एवं घनिष्ठता हैं। वह ग्रामीण परिवेश से जुड़ी हुई है और उसकी परिवार की डोर मूलतः नैतिकता, अनुशासन एवं संस्कारो से बंधी हुई हैं। सात साल की बच्ची शायद अभी इस परिवेश के तौर तरीके को समझने ही लगी थी, ढलने ही लगी थी, परवरिश से कुछ सीखने ही लगी थी और यूं कहे तो उसने अभी बच्चपन को जीना शुरू ही किया था कि उसे परिवेश बदलना पड़ा। गांव से शहर की ओर। वह उत्सुक थी कि शहर कैसा होगा! वहां बड़े–बड़े स्कूल होंगे, नए दोस्त बनेंगे । हर चीज़ नई होगी; मेरा स्कूल बैग नया होगा, किताबें, जूते, यूनिफॉर्म, आदि।
किंतु क्या वह वाकई में इस बदलाव के लिए तैयार थीं? क्या उसका मन: मस्तिक इस परिवर्तन को अपनाने को तैयार था? जितनी जिज्ञासा, उत्सुकता, प्रसन्नता से वो शहर आने के सपने संजोए रही थी; क्या वो वाकई में उतना ही खूबसूरत निकला?
आरोही का परिवार समयानुसार काफी आधुनिक था तथा शिक्षा की महत्व को समझता था; तभी तो बच्चो की बुनियादी आवश्यकताएँ को देखते हुए शहर आने का फैसला लिया। यह फैसला आरोही के कितने फ़ासलो के समरूप था ये तो सिर्फ़ वक्त को ही अंदाज़ा था।
आरोही अपने बड़े भाई–बहनों के साथ शहर आ चुकी थी, उसके और भाई–बहनों की अवस्था में एक दशक का फ़र्क था। सभी भाई-बहन अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ रहे थे और अब उसकी भर्ती भी शहर के नामी स्कूल में हों गई थी। वह बहुत खुश थी कि अब वो भी बड़े भाई-बहनों के जैसे अच्छे स्कूल में पढ़ रही है और अब वो किसी से कम नहीं हैं। वो स्कूल गई ; किंतु यहां का माहौल उसके पहले स्कूल से काफ़ी अलग था। यहां सभी बच्चे अंग्रेज़ी में बात करते थे, शिक्षक भी अंग्रेज़ी में ही पढ़ाते, किताबें भी इसी भाषा में और ये ज्यादा से ज्यादा हिंदी अच्छे से बोल पाती थी। इसे अंग्रेज़ी बिल्कुल पसंद नहीं था और वो मैथ्स के आलावा कोई विषय पढ़ती नहीं थी। पिछले स्कूल में मैथ्स में उसके स्तर का उसे २/३ वर्ग के बच्चे भी नहीं थे। उसने सिर्फ और सिर्फ मैथ्स ही पढ़ा था और बाकी विषयो में बस औसत अंक तक का ही पढ़ती थी।
एक साथ ये सारे बदलाव को वो स्वीकार नहीं कर पा रही थी । वो समझ नहीं पा रही थी कि क्या भाषा किसी बच्चे की स्तर का मापदंड हैं? उससे कोई दोस्ती करने को तैयार नहीं था और नाही इस बड़े स्कूल के शिक्षक उसपे ध्यान देते थे,क्योंकि उसकी अंग्रेज़ी कमजोर थीं। जहां उसने नए दोस्त एवं नई किताबो के लिए सपने संजोए थे,आज उसमे ज़रा भी सच्चाई प्रतीत नहीं हो रही थी। जहां उसके गांव का वो छोटे से स्कूल की तेज़ एवं होनहार, सभी शिक्षकों की लाड़ली एवं सबकी अच्छी दोस्त रहने वाली खुशमिजाज आरोही थीं, आज शहर उसे खलने लगा था। शहर से की हुई अपेक्षाएं,उपेक्षा में तब्दील हो रहीं थी। सबसे मिली विमुखता उसे चोट कर रही थी। उसके बड़े भाई बहनों ने भी उसकी ऊंगली थामने के बजाय उसपे हंसने लगे थे और उनके लिए वो कमजोर एवं मंदबुद्धि हो गई थी। दो पल की खुशियां थी, रेत की तरह फिसल गई थी। वे सभी अपने वर्ग के अव्वल विद्यार्थी थे और उन्होंने कभी बड़ों को निराश नहीं किया था।अब तो शायद बड़ों को अफसोस होने लगा था कि इतने बड़े स्कूल में भर्ती करा कर पैसे पानी में बहा रहे हैं, क्योंकि परिणाम कुछ खास लाभदायक नहीं था।
वार्षिक परीक्षा हो गई थी और रिजल्ट घोषित होने के बाद आरोही घर आना नही चाहती थी, क्योंकि वो अंग्रेज़ी में फेल थीं किंतु मैथ्स की टॉपर।वो रो रहीं थीं कि अब मैं क्या कहूंगी? क्या सच में मै मंदबुद्धि हूं ? क्या सच में पढ़ाई मेरे बस की बात नहीं है? अब मैं पापा से क्या कहूंगी? काफ़ी देर तक रोते रहने के बाद उसने घर की ओर कदम बढ़ाया और शायद उस दिन का डगर आसान नहीं था उसके लिए।
वो घर तो आई किंतु रिपोर्ट कार्ड दिखाने को हिम्मत नहीं थी उसमें, मां थी घर पे, उसने खाना खाया और सो गई। क्योंकि आज वो मां से भी सामना नहीं कर पा रही थी और उसे डर था कि आज शाम में क्या होगा? बहुत हिम्मत करने के बाद उसने अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाया और हमेशा की तरह सब उसपे चिखे- चिल्लाएं, उसके कार्ड को फेंक दिया गया एवं सबकी फैसला यहीं थीं की उसे वापिस गांव भेज दिया जाए।
जहां गांव में उसे अपनापन एवं स्नेह मिला था, शहर उतना ही बेरुख़ था। जहां गांव में वह निडर एवं होनहार थीं, शहर उतना ही आतिथ्यविमुख था। जहां परिवार में घनिष्ठता एवं स्नेह था,बच्चों में उतना ही आपसी मतभेद। जहां गांव की कच्ची डगर उसे बचपन जीना सीखा रही थी, शहर की उच्ची इमारत एवं पक्की डगर उसे ‘डरपोक’ बना रहीं थीं। आरोही के सपने कांच के खिलौने के भांति निकली जिसे टूटने के बाद न जोड़ा जा सकता था, न खेला। घर एवं स्कूल के इस माहौल ने उसे संकोची बना दिया था एवं आत्मविश्वास तनिक भी न रहा उसमे। वो शांत एवं निराश रहने लगीं, कोई उससे सही से बात नहीं करता था और वो खुद में ही सिमट कर रहने लगीं, घर वाले ने भरोसा नहीं किया और अब मन में उसके कुंठो ने घर कर लिया था। काफ़ी अनुनय-विनय के बाद उसे स्कूल में रहने दिया गया, एक उत्तरदायित्व समझ कर।
परिणास्वरूप अब वह सबको जवाब देने लगीं थीं, जिसके लिए उसे थप्पड़ भी जड़ दिए जाते थे क्योंकि यह घर का अनुशासन नही था कि बच्चे बड़ों को प्रत्युत्तर करे। अभिभावक भी नाराज़ होने लगे क्योंकि अब वो मंदबुद्धि के साथ-साथ उच्छृंखल हो गई थी। उसे भी अपने इस व्यवहार से प्रसन्नता नहीं होती थीं किंतु उसका यह बर्ताव उसकी विवशता थी; कुंठाओ का नतीज़ा। वह मेहनत तो कर रहीं थीं किंतु उसे वजूद की तलाश थी। ख़ुद में ही वो ख़ुद को तराशने लगीं थी। वक्त का पहिया चलता जा रहा था किंतु प्रतिफल अभी भी बहुत अव्वल नहीं था।
उसका डर; आज मुझे घर पे क्या सामना करना पड़ेगा? अगर इस बार फेल हो गई तो लोगो की क्या अवधारणा होगी? अभिभावक की क्या इज्ज़त रह जायेगी? भविष्य में मै कभी अव्वल हों पाऊंगी या नहीं? क्या मुझे ऐसे ही उपेक्षित रहना पड़ेगा? क्या मैं कभी विजेता बन पाऊंगी? आदि।
था डगर कठिन; था फासला गांव एवं शहर में; किंतु उसने अपना मनोबल तथा मेहनत को कभी कम नहीं होने दिया था।शायद अब परमेश्वर को भी इम्तिहान ख़त्म करना था; उसे प्रेरणा मिली अपने पिता से; उनकी कर्मठता एवं संघर्ष से; उनके कठिन दौर से; उनके आत्मविश्वास से।
उसकी तलाश तथा तराश से एक नई आरोही की उत्पत्ति हुई जो संयमित एवं संकल्पित थीं। जिसमे आत्मविश्वास था कि अब वो कर सकती हैं। पिता की कर्मशिलता ने उसे प्रतिबिंबित किया,अदम्य बनाया; संघर्ष ने उसे कामुक तथा संकल्पनिष्ठ और उनके परिश्रम एवं ईमानदारी ने इसे अथक तथा श्रमी बनाया। अब उम्र के साथ-साथ उसका मन भी बड़ा हो गया था और अपने इन मूल्यों के आधार से; इस बार वह अपने कक्षा में टॉप ३ में आई थीं। अब वो प्रसन्न रहने लगीं थी और परिवार, शिक्षक एवं दोस्तो से काफ़ी घनिष्ठ संबंध बन गए थे।
अब यह आरोही भी प्रतिभाशाली तथा होनहार हों गई थी। अब गीले-सिकवे मिटने लगे थे। इंसान सफल तब होता है जब वो दुनिया को नहीं ख़ुद को बदलना शुरु कर देता है। उसमें योग्यता, निष्ठा थी और समय का सदुपयोग , श्रम ही सफ़लता का आधार बन गया।
गांव एवं शहर के फांसलो में डर ने घर और डगर ने वजूद खंडित कर दिया था। कसौटी, प्रयत्न, आत्मविश्वास एवं संयम ने इसका भेदन किया। कार्य ही सफलता की बुनियाद है।
“मौलिक एवं स्वरचित”
स्तुति कुमारी।