“डरता हूँ————-“
डरता हूँ—————————
कहीं आकाश छूने के कोशिश में
धरती न छूट जाये।
इसलिए न तो आकाश को छू पाता हूँ,
न तो धरती पर रह पाता हूँ।
बस———————————
आकाश और धरती के बीच,
डरता–सहमता–विचरता रह जाता हूँ।
क्योंकि——————————
मेरी असफलताएं, जीवन की
अविभाजित कड़ी बन गयी हैं।
और मैं——————————-
उसका अवसाद मात्र।।
वर्षा (एक काव्य संग्रह)से/ राकेश चौरसिया