ठूंठ
ठूंठ
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क्यों देखता है बसंत अब मेरी ओर !
है प्रीत पूर्ण सूखे झडते
पत्तों के स्वर
उजडे शाखों पर
काग-गीध हैं मेरे सह्चर
मकडी भी तो बांध रही है
बडे प्यार से प्रेम डोर
क्यों देखता है बसंत अब मेरी ओर !
तीखी किरणों का
दूना स्नेह अकेला पाकर
थपकी दे जाती
मुझे हवा तेजी से आकर
बडे प्यार से ढूढं रहे घुन
उलझे हुए दर्दों के छोर
क्यों देखता है बसंत अब मेरी ओर !
……अवधेश सिन्हा