ठूँठ ……
ठूँठ ……
पहाड़ की ऊंची चोटी पर
अपने चारों तरफ
हरियाले वृक्षों से घिरा
मैं ठूँठ सा तन्हा खड़ा हूँ ।
कुछ वर्ष पूर्व
आसमानी बिजली ने
हर ली थी मेरी हरियाली
यह सोच कर कि
वो मेरे तन-बदन को
जर्जर कर मेरे अस्तित्व को
नेस्तनाबूद कर देगी ।
मगर
वक्त के साथ
अपने नंगे बदन पर
मैं मौसम के प्रहार सहते-सहते
एक मजबूत काठ में
परिवर्तित होता गया ।
आज मैं
आसमान से
अपनी विध्वंसक शक्ति का डंका बजाती
बिजली के सम्मुख
उसकी शक्ति को
धत्ता देता
मौन, निर्भीक
हर प्रहार को सहता
भय के हर बन्धन से मुक्त
ठूँठ के आवरण में
किसी शान्त योगी सा
स्थिर खड़ा हूँ
पहाड़ की ऊंची चोटी पर
सुशील सरना