ठिठुरता आदमी
गजल
आदमी को देखकर क्यों आज जलता आदमी।
हाय क्यों ईर्ष्या जलन में रोज मरता आदमी।१
चार दिन की जिन्दगी है सांस भी अपनी नहीं,
फिर भी देखो आदमी से बैर रखता आदमी।२
खोदता खड्ढा गिराने के लिए वह गैर को,
राह में कांटे बिछाकर खुद उलझता आदमी।३
एक पल का भी ठिकाना है नहीं पर क्या कहें,
फिक्र में सातों जनम की रोज रहता आदमी।४
खुद की चिंता तो यहां पर जानवर भी कर लिए,
दूसरों खातिर मरे ऐसा न दिखता आदमी।५
भूल बैठा मूल को माया सताये हर घड़ी,
लोभ ईर्ष्या के समुन्दर में फिसलता आदमी।६
बर्फबारी में भी शिमला घूम आए ‘सूर्य’ तुम,
पास जिसके है नहीं गुदड़ी ठिठुरता आदमी।७
(स्वरचित मौलिक)
#सन्तोष_कुमार_विश्वकर्मा_सूर्य
तुर्कपट्टी, देवरिया, (उ.प्र.)
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