ठिकाना ढूँढती बहती हवा सी लगती हूँ
ठिकाना ढूँढती बहती हवा सी लगती हूँ
ज़िंदगी से नहीं खुद से खफ़ा सी लगती हूँ
मुझ में बस गई है आकर किस ज़ोर से देखो
इन हसरतों को न जाने क्यूँ खुदा सी लगती हूँ
कौन सी बहार का है इंतेज़ार आँखों में
किसी उजड़े चमन की मैं सदा सी लगती हूँ
नहीं कमतर किसी से मैं ये लोग कहते हैं
रंग छोड़ जाए अपना वो हिना सी लगती हूँ
चीज़ क्या हो तुम सूरत-ए-आफ़ताब ढक लूं मैं
कहा करते थे तुम ही कि घटा सी लगती हूँ
कौन पूछे है मुझे कौन है आशना मिरा
जगह पर हूँ फिर भी गुमशुदा सी लगती हूँ
बात दिल की हँसी में कहके कह गया ज़हर
दर्द जब होता है तब’सरु’ दवा सी लगती हूँ
——-सुरेश सांगवान’सरु’