ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंकते रहे
ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंकते रहे
हिलता हुआ फिर अक्स अपना देखते रहे
शहर में तूफ़ानों का आना- जाना लगा रहा
हैरान नज़र भी हुई और पहरे देखते रहे
कहने को दुनियाँ में सब कुछ है फ़िर भी
हम उदास चेहरे हँसी नदारद देखते रहे
ज़िंदगी की उम्र क्या रास्ते मंज़िल कहाँ
हम बुलबुले में पता अपना देखते रहे
रोटी की थकान से ही बंद हो चली आँखे
गहरी नींदों में ख़्वाब उँचे देखते रहे
जागते हैं रोज़ कुछ नये इरादे लेकर
उठ-उठ के गिरती लहरें हाय देखते रहे
सुलझाने में और भी उलझती रही ‘सरु’
हम ज़िंदगी की ज़ुल्फ परींशां देखते रहे