ठहरा-ठहरा
जिंदगी कहीं तो पहुँचा दे , मैं ठहरा-ठहरा रहता हूँ।
अब कुछ भी नहीं भाता है मुझे ,मैं गूंगा बहरा रहता हूँ।
जेहन में कितने दर्द लिए ख्वाबों को कहीं सुपुर्द किए,
गमों के दरिया में खोकर के कहीं ,बस जैसे- तैसे
बहता हूँ।
जिंदगी कहीं तो पहुँचा दे , मैं ठहरा-ठहरा
रहता हूँ।
बद से बदतर हो जाते हैं ,क़भी- क़भी हालात मेरे।
यूँही बेसुध से रहते है , अक्सर ही जज्बात मेरे।
गम से पीछा छूटेगा क़भी ? इतना तो बतला
दे कोई,
गम के साए में जीता हूँ और गम के साए में
मरता हूँ।
जिंदगी कहीं तो पहुँचा दे , मैं ठहरा-ठहरा
रहता हूँ।
-सिद्धार्थ गोरखपुरी