*ट्रस्टीशिप : सनातन वैराग्य दर्शन का कालजयी विचार*
ट्रस्टीशिप : सनातन वैराग्य दर्शन का कालजयी विचार
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महात्मा गॉंधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप एक कालजयी विचार है। यह एक विराट जीवन दर्शन है। इसके मूल में व्यक्तिगत सामर्थ्य को समाज और विश्व की भलाई के लिए उपयोग में लाने का भाव निहित है। कम से कम शब्दों में ट्रस्टीशिप का तात्पर्य यह है कि व्यक्ति अपने धन का ट्रस्टी है और उसे उस धन को समस्त समाज की भलाई के लिए खर्च करना चाहिए। यह एक छोटी-सी परिभाषा है, जिसको समझने के लिए ट्रस्ट और ट्रस्टी शब्द भी समझना पड़ेंगे। ट्रस्ट और ट्रस्टी आधुनिक शब्दावली है, जिसका अभिप्राय एक ऐसी व्यवस्था से है जिसमें धन-संपदा आदि ट्रस्ट के नाम होती है और व्यक्ति उन शक्तियों का केवल संचालक होता है। उस पर उसका मालिकाना हक नहीं होता। यहॉं तक कि अगर कोई व्यक्ति अपने ही धन को अर्थात निजी संपत्ति को एक ट्रस्ट में परिवर्तित करके उसका ट्रस्टी बन भी जाता है, तब भी वह उसका केवल संचालक कहलाएगा। वह उसके मालिकाना अधिकार से वंचित हो जाएगा। कोई ट्रस्टी यह नहीं कह सकता कि यह संपत्ति मेरी है। मैंने इसे ट्रस्ट में परिवर्तित किया है और यह मेरे मालिकाना अधिकार का विषय है। इसलिए ट्रस्टीशिप का सीधा-सच्चा और सरल अभिप्राय यही है कि इसमें धन-संपत्ति के संबंध में व्यक्तिगत मालिकाना अधिकार किसी का नहीं रहता। व्यक्ति केवल संचालक होता है। उसे संपत्ति को लोकहित में खर्च करने का दायित्व संभालना होता है। अपने लिए केवल आवश्यकता-भर वह खर्च कर सकता है।
इस प्रकार के ट्रस्टीशिप से परिपूर्ण विचार को जीवन में तब तक धारण नहीं किया जा सकता, जब तक कि धन-संपत्ति के प्रति एक वैराग्यपूर्ण दृष्टिकोण जीवन में विकसित नहीं हो जाता। संपूर्ण भारतीय दर्शन वैराग्य की आधारशिला पर ही टिका है। नश्वर शरीर की अवधारणा वैराग्य का मूल है।
ट्रस्टीशिप के सबसे बड़े आदर्श कहे जाने वाले उद्योगपति जमनालाल बजाज अपने जीवन में वैराग्य वृत्ति को पूरी तरह आत्मसात कर चुके थे। उनके शयन-कक्ष में एक तख्ती लटकी रहती थी और उस पर लिखा होता था कि याद रखो एक दिन मरना अवश्य है । प्रतिदिन सोने से पहले जमनालाल बजाज की नजर तख्ती पर लिखे गए उस वाक्य पर अवश्य पड़ती थी। वह उन शब्दों को आत्मसात करते थे और अपने जीवन में उन्होंने इस विचार को निरंतर इस दृष्टि से ढाल लिया कि उनका समस्त जीवन ही ट्रस्टीशिप की साधना में बदल गया। अपने लिए कम से कम खर्च करना तथा राष्ट्र और समाज के लिए बढ़-चढ़कर अपनी संपत्ति का उपयोग कर देना, यह उनका स्वभाव था। यही तो ट्रस्टीशिप है।
अपने राष्ट्रीय जीवन में ट्रस्टीशिप कहें या वैराग्य भाव कहें, सर्वत्र देखने में आता है। जब हम रामायण की कथा पढ़ते हैं तब उसमें भगवान राम का चरित्र वैराग्य का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। एक क्षण के लिए भी भगवान राम को अयोध्या की राज्यसत्ता का परित्याग करके वन के लिए साधारण वेशभूषा के साथ सारे सुखों से रहित होकर जाने में कोई संकोच नहीं हुआ। उन्होंने तो वन के जाने पर आंतरिक प्रसन्नता ही व्यक्त की थी। पिता दशरथ का भी चरित्र कम महान नहीं था। उन्होंने भी एक दिन जब अपने सिर के बालों को सफेद पाया तो उसी क्षण गुरु वशिष्ट के पास जाकर अयोध्या का राजपाट राम को देने की मंत्रणा कर डाली। उधर राम के चरित्र का वैशिष्ट्य देखिए, वह भी इस सोच-विचार में डूब गए कि हम चार भाई हैं। लेकिन राज्य किसी एक को क्यों मिल रहा है ? अर्थात चारों में बराबर बॅंटना चाहिए। संसार में कभी भी इस दृष्टि से राजा के पद पर सुशोभित होने वाले किसी राजकुमार ने विचार नहीं किया होगा। यह तो भारत की मिट्टी में उठने वाली वैराग्य की गंध ही है, जो राम जैसे सात्विक चरित्र उत्पन्न करती है।
भरत जी का चरित्र भी देखिए। उनको विधिवत रूप से अयोध्या का राजा का पद दिया जा चुका है, लेकिन वह उसे स्वीकार नहीं करते। राम के पास वन जाते हैं और कहते हैं कि अयोध्या में चलकर राज-सिंहासन को सुशोभित कीजिए। ऐसा भाव भारत में ही संभव है। और उसके बाद जब राम नहीं माने तो भरत ने राम की चरण-पादुकाएं अयोध्या के राज-सिंहासन पर आसीन कर दीं और स्वयं साधु का वेश धारण करके चौदह वर्ष काटे। यह जो चौदह वर्ष अयोध्या में राम की चरण-पादुकाओं के साथ वैरागी भरत के बीते, यह असली ट्रस्टीशिप है। एक राजा से यही अपेक्षा की जाती है कि वह अपने व्यक्तिगत खर्च को कम से कम रखे तथा राज्य की संपत्ति को जनता की भलाई के लिए अधिकाधिक खर्च में ले । लेकिन हम विश्व के राजाओं का इतिहास अगर देखें तो इससे उल्टा ही कुछ परिदृश्य देखने में आएगा। जनता गरीब है। टूटे-फूटे मकान में रहती है। उसकी शिक्षा का कोई प्रबंध नहीं है। सड़कें ऊबड़-खाबड़ हैं। लेकिन राजा के महल आलीशान बने हुए होते हैं। यह सब ट्रस्टीशिप की भावना के विरुद्ध है।
आज पुस्तकों में सीमित वैराग्य वृत्ति को हृदय में स्थापित करने की आवश्यकता है। अगर एक बार वैराग्य शब्द हम अपने हृदय में बिठा लें तो क्षण-मात्र में हम अपने ही धन के भरत के समान ट्रस्टी बन जाएंगे। विश्व मानवता को चरण-पादुका के रूप में हम मालिक के रूप में स्थापित करेंगे और स्वयं साधु रूप में जीवन व्यतीत करने के लिए खुशी-खुशी तैयार हो जाएंगे। इसी में ट्रस्टीशिप के विचार की गरिमा है। उसका वास्तविक सौंदर्य है। लोगों के हृदयों में सादगी, मितव्ययता और समाज के हित का भाव जागृत करके ही यह कार्य संभव है। ऐसा नहीं है कि ट्रस्टीशिप की साधना केवल अरबपति धनाड्य व्यक्ति ही कर सकते हैं। छोटी से छोटी पूंजी का व्यक्ति अगर अपने धन का छोटा-सा अंश भी समाज के लिए अर्पित करने का मनोबल रखता है, तो यह ट्रस्टीशिप की साधना है।
यह केवल धन का विचार नहीं है। समय और परिश्रम का भी ट्रस्टी हुआ जा सकता है। वास्तव में देखा जाए तो समय और परिश्रम सबसे मूल्यवान है। इसका स्थान धन से भी ऊंचा है। जो कार्य धन से नहीं हो सकते, वे कुछ समय व्यय करने के माध्यम से भली भांति हो सकते हैं। प्रायः बुजुर्गों को समय देकर नौजवान उनको असीम शांति और सुख प्रदान कर सकते हैं। आत्मीयता के दो बोल उन बुजुर्गों के जीवन में उल्लास भरने में समर्थ हो सकते हैं।
इस तरह अगर सब लोग अपनी-अपनी क्षमताओं को केवल अपने लिए तथा अपने स्वार्थ में ही सीमित न रखकर व्यापक परिदृश्य में समर्पित करने के लिए प्रयत्नशील होंगे, तो निश्चित रूप से एक बड़ी क्रांति समाज में आ सकती है। यह महात्मा गॉंधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप के विचार के अनुरूप होगी। यह भारत की सांस्कृतिक चेतना के अनुरूप एक बड़ा कार्यक्रम रहेगा।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा, रामपुर, उत्तर प्रदेश
मोबाइल 9997615451